
सम्बन्ध— अब अगले तीन मन्त्रों में असम्भूति और सम्भूति का तत्व बतलाया जाएगा ।
इस प्रकरण में असम्भूति शब्द का अर्थ है जिसकी पूर्ण रूप से सत्ता न हो, ऐसी विनाशशील देव पितर और मनुष्य आदि योनियों एवं उनकी भोग सामग्रियां ।
इसलिए चौदहवें मंत्र में ‘असम्भूति’ के स्थान पर स्पष्टतया विनाश शब्द का प्रयोग किया गया है । इसी प्रकार सम्भूति का अर्थ है— जिसकी सत्ता पूर्णरूप से हो, वह सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति स्थिति और संहार करने वाला अविनाशी परब्रह्म पुरुषोत्तम —
{गीता ७। ६-७} ।
देव पितर और मनुष्य आदि की उपासना किस प्रकार करनी चाहिए और अविनाशी पर ब्रह्म की किस प्रकार— इस तत्व को समझ कर उनका अनुष्ठान करने वाले मनुष्य ही उनके सर्वोत्तम फलों को प्राप्त हो सकते हैं, अन्यथा नहीं । इस भाव को समझाने के लिए पहले, उन दोनों के यथार्थ स्वरूप को ना समझकर अनुष्ठान करने वालों की दुर्गति का वर्णन करते हैं ।।
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते ।
ततो भूय इव तेतमो य उसम्भूत्यान्’रताः ।।
व्याख्या— जो मनुष्य विनाशशील स्त्री, पुत्र, धन, मान, कीर्ति, अधिकार आदि इस लोक और परलोक की भोग-सामग्रियों में आसक्त होकर उन्हीं को सुख का हेतु समझते हैं तथा उन्हीं के अर्जन-सेवन में सदा संलग्न रहते हैं, एवं इन भोग-सामग्रियों की प्राप्ति संरक्षण तथा वृद्धि के लिए उन विभिन्न देवता पितर और मनुष्य आदि की उपासना करते हैं जो स्वयं जन्म मरण के चक्र में पड़े हुए होने के कारण अभावग्रस्त और शरीर की दृष्टि से विनाश शील हैं उनके उपासक हुए भोगासक्त मनुष्य अपनी उपासना के फल स्वरूप विभिन्न देवताओं के लोकों को और विभिन्न भोग योनियों को प्राप्त होते हैं । यही उनका आज्ञा रूप घोर अंधकार में प्रवेश करना है ।।
{गीता ७। २० से २३}
दूसरे जो मनुष्य शास्त्र के तात्पर्य को तथा भगवान के दिव्य गुण प्रभाव तत्व और रहस्य को न समझने के कारण न तो भगवान का भजन-ध्यान ही करते हैं और ना श्रद्धा का अभाव तथा भोगों में आसक्ति होने के कारण लोकसेवा और शास्त्र विहित देव उपासना में ही प्रवृत्ति होते हैं,
*ऐसे भी विषयासक्त मनुष्य झूठ-मूठ ही अपने को ईश्वर उपासक बतलाकर, सरल हृदय जनता से अपनी पूजा कराने लगते हैं ।
यह लोग मिथ्याभिमान के कारण देवताओं को तुच्छ बदलाते हैं और शास्त्र अनुसार अवश्य’कर्तव्य देवपूजा तथा गुरुजनों के सम्मान-सत्कार करना छोड़ देते हैं ।
इतना ही नहीं दूसरों को भी अपने वाग्जाल में फंसा कर उनके मनों में भी देव उपासना आदि के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न कर देते हैं ।
ये लोग अपने को ही ईश्वर के समकक्ष मानते-मनवाते हुए मनमाने दुराचरण में प्रवृत्त हो जाते हैं । ऐसे दम्भी मनुष्यों को अपने दुष्कर्मों का कु’फल भोगने के लिए बाध्य होकर नीच योनियों में और रौरव कुंभी पाक आदि नरकों में जाकर, भीषण यंत्रणाएं भोगनी पड़ती हैं । यही उनका विनाशशील देवताओंकी उपासना करनेवालों की अपेक्षा भी अधिकतर घोर अंधकार में प्रवेश करना है ।।
{गीता १६। १८। १९}
साभार— गीता प्रेस
लेखन एवं प्रेषण —
साधक बलराम शुक्ल
नवोदय नगर, हरिद्वार