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ईशावास्योपनिषद्- श्लोक १३

सम्बन्ध— शास्त्र के यथार्थ तात्पर्य को समझकर सम्भूत और असम्भूत की उपासना करने से जो सर्वोत्तम परिणाम होता है अभी संकेत से उसका वर्णन करते हैं ।।

अन्यदेवाहु: सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात् ।
इति सुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ।।
व्याख्या— अविनाशी ब्रह्म की उपासना यथार्थ स्वरूप है—
परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान को सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ, सर्वाधार, सर्वमय, संपूर्ण, संसार के कर्ता, धर्ता, हर्ता नित्य अविनाशी समझना और भक्ति श्रद्धा तथा प्रेमपूरित हृदय से नित्य निरंतर उसके दिव्य परम मधुर नाम रूप लीला धाम तथा प्राकृत गुणरहित एवं दिव्य गुणगणमय सच्चिदानंदघन स्वरूप का श्रवण कीर्तन स्मरण आदि करते रहना ।
इस प्रकार की सच्ची उपासना से उपासक को शीघ्र ही अविनाशी परब्रह्म पुरुषोत्तम की प्राप्ति हो जाती है ।
{ गीता ९। ३४ } ईश्वरोपासना का मिथ्या स्वांग भरने वाले दम्भियों को जो फल मिलता है, उससे इन सच्चे उपासकों को मिलने वाला यह फल सर्वथा भिन्न और विलक्षण है ।
इसी प्रकार विनाशशील देवता पितर मनुष्य आदिकी उपासना का यथार्थ स्वरूप है—
शास्त्रों एवं श्रीभगवान् के आज्ञा अनुसार
{गीता १७। १४}
देवता, पितर, ब्राह्मण, माता-पिता, आचार्य और ज्ञानी महापुरुषों की सेवा – पूजाआदि अवश्य कर्तव्य समझकर करना और उसको भगवान् की आज्ञा का पालन एवं उनकी परम सेवा समझना ।
इस प्रकार निष्कामभाव से देव, पितर, मनुष्य आदि की सेवा पूजा करने वालों के अंतःकरण की शुद्धि होती है तथा उनको श्रीभगवान् की कृपा का प्रसन्नता प्राप्त होती है, जिससे वे मृत्युमय संसार सागर से तर जाते हैं । विनाशशील देवता आदि की सकाम उपासना से जो फल मिलता है उससे यह फल सर्वप्रथा भिन्न और विलक्षण है ।
इस प्रकार हमने उन धीर तत्वज्ञानी महापुरुषों से सुना है, जिन्होने हमें यह विषय पृथक-पृथक रूप से व्याख्या करके भलीभाँति समझाया था ।।

साभार- गीता प्रेस, ईशावास्योपनिषद् ।
लेखन व प्रेषण—
साधक पं. बलराम शुक्ल
नवोदय नगर, हरिद्वार

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