
!! उपनयन संस्कार की महिमा !!
आचार्य के विशेष-विशेष संस्कार द्वारा बालक को सुसंस्कृत करने का संस्कार ही उपनयन या यज्ञोपवीत संस्कार है ।
इसमें यज्ञोपवीत धारण कर बालक विशेष-विशेष व्रतों में उपनिबद्ध हो जाता है, जिसका प्रारम्भ इसी व्रतबन्ध-संस्कार से होता है । इस व्रतबंध से बालक दीर्घायु, बली और तेजस्वी होता है— यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वां यज्ञोपवीतेनोपह्यामि दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे’ {कौषीतकि ब्राह्मण} ।
उपनयन के बिना बालक किसी भी श्रौत-स्मार्त कर्म का अधिकारी नहीं होता ।
‘न ह्यस्मिन् युज्यते कर्म किञ्चिदामौञ्जिबन्धनात्’
{मनुस्मृति २।१७१}
यह योग्यता अपने संस्कारों के अंतर्गत करने पर ही प्राप्त होती है उपनयन के बिना देवकार्य और पितृकार्य नहीं किये जा सकते और श्रौत-स्मार्त-कर्मोंमें तथा विवाह सन्ध्या तर्पण आदि कर्मोंमें भी उसका अधिकार नहीं रहता । उपनयन-संस्कार से द्विजत्व प्राप्त होता है । उपनयन-संस्कारमें समन्त्रक एवं संस्कारित यज्ञोपवीत-धारण तथा गायत्री-मंत्र का उपदेश– ये दो प्रधान कर्म होते हैं, शेष कर्म अंगभूत कर्म हैं ।
ब्रह्म पुराण में कहा गया है कि— जब उस बटुकका ५ से ८ वर्षकी अवस्थामें यज्ञोपवीत संस्कार होता है तब वह द्विज {द्विजन्मा} कहा जाता है और वह वेदाध्ययन तथा यज्ञाग्निरूप धर्मकार्य आदि करने का अधिकारी होता है । वेदज्ञान प्राप्त करने से विप्र तथा ये तीनों बातें होने से वह श्रोत्रिय कहलाता है—
जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते ।
विद्यया वापि विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते ।।
तैत्तिरीय संहिताने बताया है कि मनुष्य तीन ऋणोंको लेकर जन्म लेता है । १~ऋषि-ऋण, २~देव-ऋण तथा ३~ पितृ-ऋण ।
इन तीन ऋणों से मुक्ति– बिना यज्ञोपवीत संस्कार हुए सम्पन्न नही होती । मनुष्य के यज्ञोपवीत-संस्कार के अनन्तर विहित ब्रह्मचर्य पालन करने से १~ऋषियोंके ऋण से मुक्त होता है, यजन-पूजन आदि के द्वारा २~देवऋण से मुक्त होता है और गृहस्थ धर्म के पालनपूर्वक संतानोत्पत्ति से– ३~पितृ-ऋण से उऋण होता है यदि यज्ञोपवीत संस्कार न हो इन तीनों कर्मों को करने का उसे अधिकार नहीं रहता ।।
उपनयन संस्कार कब करें !! आचार्य पास्कर ने ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य बालक के लिए कम से जन्म से अथवा गर्भ से ८, ११ और १२ वर्ष उपनयन का मुख्य काल बताया है—
अष्टवर्ष ब्राह्मणमुपनयेद् गर्भाष्टमे वा ।
एकादशवर्ष राज्यन्यम् । द्वादशवर्षं वैश्यम् ।।
{पास्करगृह्यसूत्र २।२।१-३}
किसी कारणवश मुख्यकाल में यज्ञोपवीत-संस्कार ना हो सका तो, ब्राह्मण बालक का १६ क्षत्रिय बालक का २२ तथा वैश्य बालक का २४ वर्ष तक उपनयन-संस्कार हो जाना चाहिये, यह उपनयन कल की चरमा अवधि है ।
कामनापरक यज्ञोपवीत—
ब्राह्मणबालक को विशेष ब्रह्मतेजसम्पन्न बनाने की इच्छा हो तो पांचवें वर्ष में बलका-अभिलाषी क्षत्रिय बालक का छठे वर्ष में तथा धनार्थी वैश्यबालक का आठवें वर्ष में उपनयन करना चाहिए—
ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पञ्चमे ।
राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे ।।
{मनुस्मृति}
उपनयन-संस्कार और यज्ञोपवीत {जनेऊ}– का अभेद सम्बन्ध—
कात्यायनस्मृति {१।४} में कहा गया है—
सदोपवीतिना भाव्यं सदा बद्धशिखेन च ।
विशिखो व्युपवीतश्च यत् करोति न तत्कृतम् ।।
अर्थात्—
यज्ञोपवीत {जनेऊ} सदैव धारण करना चाहिए और शिखा में ओंकाररूपिणी ग्रंथि बाँधे रखनी चाहिये । शिखा-सूत्र विहीन होकर {जनेऊ और चोटी न रखकर} जो कुछ धर्म-कर्म किया जाता है, वह निष्फल होता है ।।
सामान्य अर्थों में यज्ञोपवीत तीन तागोंके जोड़ में लगी ग्रंथियोंसे युक्त सूतकी एकमाला है, जिसे ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य धारण करते हैं । वैदिक अर्थों में यज्ञोपवीत शब्द ‘यज्ञ’ और ‘उपवीत’ इन दो शब्दों के योग से बना है जिसका अर्थ है– ‘यज्ञ से पवित्र किया गया सूत्र’ सरकार परमात्मा को ‘यज्ञ’ और निराकार परमात्मा को ब्रह्म कहा गया है– इन दोनों को प्राप्त करने का अधिकार दिलानेवाला यह सूत्र यज्ञोपवीत है ।
ब्रह्मसूत्र सवितासूत्र तथा यज्ञसूत्र इसी के नाम हैं ।।
यज्ञोपवीत की उत्पत्ति और उसके धारण की परम्परा अनादिकाल से ही- जब मानव सृष्टि हुई थी उस समय सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी स्वयं जी की यज्ञोपवीत धारण किए हुए थे, इसलिए यज्ञोपवीत धारण करते समय यह मन्त्र पढ़ा जाता है —
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रयं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ।।
ॐ यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि ।
इस मंत्र में बताया गया है कि शुभकर्मानुष्ठानार्थ बनाये गये, अत्यंत पवित्र, ब्रह्माके द्वारा आदिमें धारण किए गये, आयुष्यको प्रदान करनेवाले सर्वश्रेष्ठ, अत्यन्त शुद्ध यज्ञोपवीत को मै धारण करता हूँ । यह मुझे तेज और बल प्रदान करे । ब्रह्मसूत्र ही यज्ञोपवीत है, मैं ऐसे यज्ञोपवीत को धारण करता हूँ ।।
उपवीत संस्कारित ब्रह्मसूत्र है, जो संस्कार के जन्मसे मृत्युपर्यंत शरीर से अलग नहीं किया जाता है । इतने कड़े नियमों का पालन करते हुए कई अवसर आते हैं जब धारण किये हुए यज्ञोपवीत अशुद्ध मानकर नवीन यज्ञोपवीत धारण करने की आवश्यकता पड़ती है । मल-मूत्रका त्याग करते समय कानमें लपेटना भूल जाए अथवा कान में लिपटा हुआ सूत्र कान से सरककर अलग हो जाय, अथवा यज्ञोपवीत का कोई धागा टूट जाय तो नवीन यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए ।
उपाकर्म,जननाशौच, मरणाशौच, श्राद्धकर्म, सूर्य-चंद्र ग्रहण के समय अस्पृश्यसे स्पर्श हो जाने तथा श्रावणी में यज्ञोपवीत अवश्य बदल लेना चाहिए—
क्रमशः …….
साभार— गीताप्रेस गोरखपुर
लेखन एवं प्रेषण—
पं. बलराम शरण शुक्ल
नवोदय नगर हरिद्वार
कामनापरक यज्ञोपवीत—