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समकालीन साहित्य सृजन में प्रेमचंद की प्रासंगिकता


    किसी ने खूब कहा है--

“ख्वाहिश नहीं मुझे मशहूर होने की
आप मुझे पहचानते हो बस इतना ही काफी है”
प्रेमचंद हिंदी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी शती के साहित्य का मार्गदर्शन किया। उनका लेखन हिंदी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिंदी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा। एक संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा सुधी संपादक थे।
प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य को निश्चित दिशा दी है। प्रेमचंद आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने अपने दौर में रहे हैं, बल्कि किसान जीवन की उनकी पकड़ और समझ को देखते हुए उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है। किसान जीवन के यथार्थवादी चित्रण में प्रेमचंद हिंदी साहित्य में अनूठे और लाजवाब रचनाकार रहे हैं। प्रेमचंद का कथा साहित्य जितना समकालीन परिस्थितियों पर खरा उतरता है, उतना ही बहुत हद तक आज भी आज भी दिखाई देता है। उनकी रचनाओं में गरीब श्रमिक, किसान और स्त्री जीवन का सशक्त चित्रण उनकी दर्जनों कहानियों और उपन्यासों में हुआ है, ‘कफन ‘पूस की रात ‘औ’र ‘गोदान ‘में मिलता है।’ रंगभूमि ‘प्रेमाश्रम ‘और’ गोदान’ के किसान आज भी गांव में देखे जा सकते हैं, साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद का योगदान अतुलनीय है। उन्होंने कहानी और उपन्यास के माध्यम से लोगों को साहित्य से जोड़ने का काम किया, उनके द्वारा लिखे गए उपन्यास और कहानियां आज भी प्रासंगिक हैं।
प्रेमचंद के उपन्यासों में सभी गुण मौजूद थे। वे मनोरंजन के साधन भी हैं और सत्य के वाहक भी। इनके उपन्यासों की सबसे प्रमुख विशेषता है उनकी आदर्शवादिता। चरित्र और उसकी प्रवृत्तियों का निर्देश करने में वे आदर्शोन्मुखी हैं।
“गोदान’हिंदी की ही नहीं स्वयं प्रेमचंद की भी एक अकेली औपन्यासिक कृति है, जिसका विराट विस्तार निर्मम तटस्थता, यथार्थता और सरलता की पराकाष्ठा तक पहुंच कर अत्यंत विशिष्ट बन गई है। ऐसी शैली किसी एक भारतीय उपन्यास में नहीं मिलती।”
प्रेमचंद जी ने भाषा की सादगी और सरलता को शैली की विशेषता में रूपांतरित किया। प्रेमचंद्र दरिद्रता में जन्मे, दरिद्रता में पले और दरिद्रता से ही जूझते- जूझते दुनिया से चले गए। फिर भी वे भारत के महान साहित्यकार बन गए थे। उन्होंने अपनी को सदा मजदूर समझा। बीमारी की हालत में भी मरने के कुछ दिन पहले तक भी अपने कमजोर शरीर को लिखने पर मजबूर करते थे ,कहते थे-“मैं मजदूर हूं! मजदूरी किए बिना मुझे भोजन का अधिकार नहीं”

डॉ मीना कुमारी परिहार

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