
(10 से 25 वर्ष तक) — बालमन का जागरण
सूत्र: “तत्त्वमसि” — तू वही है, जो ब्रह्म है।
छोटे मन में प्रश्न उठा, “मैं कौन हूँ, बतलाओ रे?”
तन बदले और नाम बदले, आत्मा कभी न बदले रे।।
शब्दों में गुरु बोल उठे, “भीतर दिया जलाओ रे।”
नर हो चाहे नारी कोई, सबमें ब्रह्म समाए रे।।
कबीर कहे, सुन रे सजना — “जो तू खोजे बाहिर में, वो तुझमें ही समाना रे!”
(25 से 40 वर्ष तक) — कर्म और कर्ता का भेद
सूत्र: “कर्मण्येवाधिकारस्ते” — तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है।
जवानी में जब चल पड़ा, सपनों का इक रेला।
कर्म करे पर कहे “मैं हूँ”, फिर उलझा हर मेला।।
अद्वैत कहे, कर ध्यान प्रीत से, सब कुछ ब्रह्म कराए।
तू-मैं दोनों भ्रम हैं प्यारे, एक चेतन समाए।।
कबीर कहे, कर सेवा मन — “बिना अहं के जग निभाना रे!”
(40 से 60 वर्ष तक) — विवेक की संध्या बेला
सूत्र: “नेति नेति” — न यह, न वह, केवल ब्रह्म।
देखे जग में रूप अनेक, पर न देखे आत्मा।
बाहर खोजे सत्य को, भूले भीतर आत्मा।।
रंग गया, रस गया, अब माया भी भरमाए।
साक्षी बन जा ओ प्राणी, ब्रह्म रूप ही छाए।।
कबीर कहे, चित्त लगा रे — “जो स्थिर होवे, वही ब्रह्म कहाए रे!”
(60 वर्ष से ऊपर) — मुक्ति का द्वार
सूत्र: “न जायते म्रियते वा कदाचित्” — आत्मा न जन्म लेती, न मरती है।
अब थका तन, मन विरक्त, मोह की डोरी ढीली।
जीवन की संध्या आई, भीतर जगे दीवाली।।
न आवे अब, न जावे कुछ, मौन ही पूजा बन जाए।
नाम-रूप के पार जो जाए, ब्रह्मरूप वह पाये।।
🕊️ कबीर कहे, अब मुक्त हो रे — “न मरण तुझको, न जन्म दो रे!”
चार अवस्था, एक सत्य — जीवन का समाहार
सूत्र: “एकोऽहम् बहुस्याम्” — मैं एक था, फिर अनेक बना।
बचपन, यौवन, प्रौढ़, विराग, चारों एक कहानी।
दीप एक, बातियाँ चार, जले आत्मा की वाणी।।
देह न तू, न नाम है तू, न कोई पहचान।
चेतन जाने चेतन को, मिट जाए अज्ञान।।
कबीर कहे — “ज्यों कस्तूरी मृग न बूझे, भीतर बसे भगवान!”
आत्मबोध — बोध की चिंगारी
सूत्र: “अहम् ब्रह्मास्मि” — मैं ही ब्रह्म हूँ।”
“मैं” और “तू” की सीमाएँ, जब चुपचाप ढह जाएँ।
साँसों की हर गहराई में, ब्रह्म का रूप समाए।।
ना बाहर कुछ, ना भीतर कुछ, बस एक ही ज्योति जगे।
जो देख रहा, जान रहा, वही एक सत्य कहे।
कबीर कहे — “ध्यान न धर तू रूप पर, जो निराकार तहाँ समाना रे!”
पूर्ण अद्वैतभाव — सहज समाधि
सूत्र: “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” — सब कुछ ब्रह्म ही है।
ना सुख लुभाए, ना दुख डराए, न कुछ मेरा बचे,
जो घटे, बस उसमें घटे — चेतन सब कुछ रचे।
स्वप्न लगे जग का दृश्य, पर मैं पूर्ण जागा हूँ,
ज्ञान न रहा, ज्ञानी भी नहीं, अब ब्रह्म ही भागा हूँ।।
कबीर कहे — “अब कहाँ जाए रे मन, जहाँ न अंत, न किनारा रे!”
समभाव — लीला में लीन ब्रह्म
सूत्र: “वसुधैव कुटुम्बकम्” — सब एक ही चेतना हैं।
जिसने देखा ब्रह्म सभी में, सेवा भाव निभाया,
जो पत्थर में राम दिखाए, जीव में भी ईश्वर पाया।
सुख-दुख, निंदा, हार-जीत — सबको जो सम माने,
वही ब्रह्म को पा जाए, जो मन से मौन ठाने।।
कबीर कहे — “संत वही जो रोज़ मरे, हर पल चेतन में डूबा रे!”
पथप्रदर्शक — अद्वैत जीवन के लिए
सूत्र: “यः पश्यति स पश्यति” — जो अद्वैत को देखे, वही वास्तव में देखता है।
बालक पूछे, युवक लड़े, प्रौढ़ सहे, वृद्ध हँसे,
पर जो ‘देखे देखने वाले को’, वही अन्तस में बसे।
हर एक में ब्रह्म को देखे, हर क्रिया हो भक्ति,
जहाँ द्वैत मिट जाए पूर्ण, वहीं हो सत्य की शक्ति।।
कबीर कहे — “ध्यान न कर अब शब्दों पर, तेरा स्वर ही ‘ॐ’ बन जावे रे!”
योगेश गहतोड़ी (ज्योतिषाचार्य)
नई दिल्ली – 110059