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बाँसुरियाँ और सावन।।

जब मन मे प्रीत रही जागी,और कोयल गीत लगे गाती,तो सुन री सखी,पवन कहती, बाँसुरियाँ कही तो है बाजी।।

कही मोहन की,यह धुन तो नही,कि धड़कन रूकती और श्वास नही,वो छेड़ें जब माधुर्य तान,कहा,फिर सुध बुध, और कहा फिर जान।।

वो आलाप प्रीत के जाने है,गति हिय की सब पहिचाने है,तुम रोक भी लो ,अगर खुद को , पांव तट पर ही,तो जाने है।।

गर रूक सकती तो रोक फिर लो,धुन बंसी की,तो फिर निर्मोह,वह पागल रहे किए जाती ,तुम कहती सखी कि क्या जाती,यहा जान अपनी ही रही जाती ।।

यह बाँसुरियाँ भी बैरन है,राग हरियाली, कि सावन है,सब ही है हरा, और मनभावन ,देखो आया है न मधु सावन ।।

राधा भी घिरी बैठी पावन, मन चित्त चोर से ,लगे दामन अब परवाह किसे,कि कौन सावन,इन अखियन मे,या तन भावन।।

ये तान बड़ी निर्मोही है,चंचल चितवन मन मोहनी है ,मैं कौन हूँ समझ कहा आती,यह बात ऋतु की,या सावन साथी।।

इक बात तो है,और जरूरी है ,मन की ये प्रीत अधूरी है,गर बाँसुरियाँ की बात करे,तो फिर न कोई मजबूरी है।।

क्यूं (?)

क्योंकि

ये बाँसुरी मेरे प्रीत की है,जो बैरी भले,पर मनमीत भी है,वो कौन है यह तुम जानोगी नही,क्योंकि गहरी रही,मेरी प्रीत जी है।।

वो कान्हा, माधव, साँवरिया, करता मन तन सब बाँवरिया,पर कहना कुछ भी न उसको ,वो सेठ मेरा,मैं बाँवरिया।।

तुम समझी कि, क्यूं बजी बंसी, मेरे वश मे नही,मेरा अंशी, वो मुुझसे तान बिखेरे है,( सब मेरे ही किए बखेड़ें है।।)-3


संदीप शर्मा सरल
देहरादून उत्तराखंड

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