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चलन


फ़र्ज़ अपना, कर्ज़ अपना
तो फिर रंज किस बात का?
रकाब चाहे घोड़े की हो या जीवन की,
चलना तो मुझे ही है — फिर समाज किसका, और क्यों?

राह में काँटे हों, पत्थर हों या फूल
चुनना भी मुझे ही है फिर सवाल किसका, और क्यों?

मंज़िल चाहे दूर हो, या पाना हो कठिन,
रास्ता अनजान हो या बिल्कुल अजनबी,
पाँव अगर थकेंगे मेरे— तो तकलीफ़ किसका, और क्यों?

मुश्किलें आएँगी — और निश्चित ही आएँगी,
जो करना है, कर लो,
समय पर ज़ोर किसका और क्यों?

राह मुझे तक रही है तो तकती रहे,
राज़ कई छुपा रखे हैं वक़्त ने अपने सीने में,
तो छुपा कर रखे उस से किसी का क्या?

मैं मुसाफ़िर हूँ निकल पड़ा हूँ सफ़र में,
मंज़िल मिले या ना मिले किसी को क्या?

पथ वैरागी है, मन मोह से बँधा है,
मुक़ाम अगर दूर है तो दूर ही सही,
इसमें किसी का क्या?

आर एस लॉस्टम
लखनऊ

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