
नगर-नगर, डगर-डगर तू क्यों ऐसे फिरता है?
बनके अजनबी, अपने ही घर में क्यों रहता है?
तुझे कहूँ मुसाफ़िर या कोई घुसपैठिया,
क्यों फ़कीरों सा हाल किए फिरता है?
नागलोक-सा बना लिया क्यों ठिकाना तूने?
रंग-रूप धर लिया है चरवाहे जैसा क्यूँ रे?
गले में मुंडमाला, तन धूल में सना,
श्मशान को भी तूने अड़ा बना डाला!
जटाधारी है तू, या त्रिपुरारी कोई?
हिमालयवासी है तू, या बनवासी कोई?
उज्जैनी का राजा, या काशी का दानी,
औघड़ भी तू, और सबसे बड़ा बलिदानी।
त्रिशूलधारी, नदी का सवारी,
कहें तुझे कैसे—अद्भुत अर्धनारी!
जटाधर, गंगाधर, नागों का स्वामी,
शंभू-शंकर तू, हर संकट का थामी।
नीलकंठ तू, महाकाल का नाथ,
मार्कंडेय के तू ही तो प्रभु साथ।
सब नाम तुझमें समाए हुए हैं,
सारे रूपों में शिव ही तू है!
जो जाने तुझको, वो सबकुछ पाए,
तेरे चरणों में ही सारा जग समाए।
ॐ नमः शिवाय, तेरी महिमा अपरंपार,
भक्तों का तू रखवाला, तू ही आधार।
आर एस लॉस्टम
लखनऊ