
गंगा किनारे निमेषपुर नाम का एक गाँव था। वहां यशोवर्धन नाम का युवक रहता था। वह शिक्षित और सफल था, परंतु उसे हमेशा कुछ खालीपन सा लगता था, जिस कारण वह उदास रहता था।
हर दिन वह अपने से ही प्रश्न करता था—
“जब मेरे पास घर, ज्ञान, साधन, सम्मान सब कुछ है, तो फिर भी मन इतना खाली क्यों है?”
इस उत्तर की खोज में वह मंदिर जाने लगा, संतों के प्रवचन सुनने लगा, दर्शन-शास्त्र की किताबें पढ़ने लगा, पर उसे समाधान कहीं नहीं मिला। उसको ऐसा लगता मानो हर शास्त्र उसे और अधिक उलझा रहा है।
एक दिन वह गाँव के बाहर पीपल वृक्ष के नीचे बैठे एक वृद्ध संत महर्षि सत्यव्रत के पास पहुँचा। वह वर्षों से मौन साधना में लीन थे, किंतु उनकी आँखों में करुणा की गहराई और मौन में वाणी की स्पष्टता थी।
यशोवर्धन ने चरण स्पर्श किए और विनम्रता से पूछा —
“गुरुदेव, जीवन का सत्य क्या है और मुझे शांति कैसे प्राप्त होगी?”
महर्षि ने आँखे मूँदते हुए शांत स्वर में कहा —
“तुम्हें अब और ज्ञान नहीं, जपन की आवश्यकता है।
एक मंत्र लो — ‘ॐ तत् सत्’ — यही ब्रह्म-वाक्य है।
जब मन भटके, जब विचार उलझाएँ, जब शांति छिन जाए — तो बस इस नाम का जपन करो।
यह केवल शब्द नहीं, आत्मा की ओर लौटने की सीढ़ी है।”
यशोवर्धन के मन में संदेह उठा — “सिर्फ तीन शब्द? क्या इससे समाधान हो सकता है?”
लेकिन महर्षि की दृष्टि में जो निश्चल सत्य था, उसने उस संदेह को मौन कर दिया।
वह लौट आया और अगली सुबह, गंगा के तट पर बैठकर आँखें मूँद लीं। धीरे से उच्चारण किया —
“ॐ तत् सत्…”
प्रारंभ में मंत्र केवल शब्द थे, पर जैसे ध्वनि की एक तरंग और धीरे-धीरे, जपन एक लय बन गया।
दिन-प्रतिदिन, “ॐ तत् सत्…” मंत्र उसकी साँसों से जुड़ गया।
अब वह मंत्र बोलता नहीं था, मंत्र उसमें स्वयं बोलता था।
“ॐ” — उसे ब्रह्मांड की मूल ध्वनि-सा प्रतीत हुआ।
“तत्” — जैसे जीवन की सभी दिशाएँ उसी की ओर इंगित करती हों।
“सत्” — जैसे अंतर्मन का शुद्धतम सत्य उसके भीतर प्रकट हो रहा हो।
कुछ सप्ताह बाद, वह स्वयं में परिवर्तन अनुभव करने लगा।
उसकी चिंताएं घट गई, वाणी में संयम आया और चित्त में ठहराव होने लगा।
छोटे-छोटे क्रोध जो पहले पर्वत बन जाते थे, अब लहर की तरह उठते और शांत हो जाते।
एक दिन, वर्षों से उपेक्षित अपने पिता से वह बिना शिकायत, बिना बोझ सहज हँसी में बात कर रहा था और तभी उसे भीतर से अनुभूति हुई:
“यह मैं नहीं बोल रहा… यह मेरे भीतर से ‘ॐ तत् सत्’ बोल रहा है।”
वह तुरंत दौड़कर महर्षि सत्यव्रत के पास गया और भावविभोर होकर बोला —
“गुरुदेव! अब मैं समझ गया — यह मंत्र तो जीवन का मूल सत्य है। यह कोई साधन नहीं, स्वयं साध्य है।”
महर्षि ने आँखें खोलीं, मुस्कराए, और बोले —
“यशोवर्धन, अब तुम जान चुके हो —
“जपन केवल जिह्वा से उच्चारित ध्वनि नहीं, आत्मा का स्मरण है।
जब नाम भीतर उतर जाए, तब व्यक्ति स्वयं से मिल जाता है।
यही है आत्मोत्थान।”
योगेश गहतोड़ी