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लघु कथा: श्रद्धा का आधार

गांव से कुछ दूर बसे एक पुराने शिव मंदिर में पुजारी पंडित हरिदत्त शर्मा जी रहते थे। वह सफेद धवल धोती पहने, शांत मुखमुद्रा और नम्र स्वभाव वाले व्यक्ति थे। गांव के लोग उन्हें श्रद्धा से “बाबा” कहकर पुकारते थे। उनका संपूर्ण जीवन मंदिर की सेवा और भोलेनाथ की आराधना में ही व्यतीत हो रहा था।

इसी गांव में एक दिन एक नया शिक्षक विजय कुमार नियुक्त हुआ, जो पढ़ा-लिखा और तर्कशील विचारों वाला व्यक्ति था। उसकी मान्यता थी कि जीवन केवल मेहनत और विज्ञान के सहारे चलता है; पूजा-पाठ, आस्था और श्रद्धा केवल कमजोर लोगों की कल्पनाएँ हैं।

एक दिन विजय बाबू मंदिर पहुंचे। उन्होंने देखा कि बाबा सुबह-सुबह मंदिर की सफाई कर रहे थे, शिवलिंग का जलाभिषेक कर रहे थे और एक छोटी बच्ची को प्रसाद दे रहे थे। यह सब देखकर विजय को यह सब अनावश्यक और समय की बर्बादी लगा। उन्होंने व्यंग्यपूर्वक पूछा —
“बाबा, आप रोज़ इतने नियम से पूजा करते हैं, पर भगवान ने आपको क्या दिया? न धन है, न आराम। क्या यह सब केवल भ्रम नहीं?”

बाबा मुस्कराए और शांत स्वर में बोले —
“बेटा, भगवान ने मुझे मन की शांति दी है, सेवा करने का अवसर दिया है और कठिन समय में हिम्मत दी है। क्या इससे बड़ी कोई दौलत होती है?”

विजय चुप हो गया, पर संतुष्ट नहीं हुआ। कुछ सप्ताह बाद गांव में भयंकर बाढ़ आ गई। नदी उफान पर थी। खेत, स्कूल, घर सब जलमग्न हो गए। लोग अपना सब कुछ छोड़कर ऊंचाई की ओर भागने लगे। उसी समय बाबा ने मंदिर परिसर को आश्रय स्थल बना दिया।

उन्होंने लोगों को प्रसाद और सूखा भोजन बाँटना शुरू किया। अपने पुराने गद्दे, चादरें, बर्तन आदि सब निकालकर बच्चों और बुजुर्गों को दिए।

विजय, जो खुद अपने परिवार के साथ सहायता की तलाश में भटक रहा था, जब मंदिर पहुँचा, तो आश्चर्यचकित रह गया। वहाँ अनुशासन था, व्यवस्था थी और सबसे बड़ी बात — आशा थी।

उस रात विजय बाबा के पास बैठ गया और बोला — “बाबा, आपको डर नहीं लगा? आपने खुद के लिए कुछ नहीं बचाया?”

बाबा मुस्कराए —
“बेटा, जब श्रद्धा को आधार बनाकर और ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखते हुए सेवा की जाती है, तो डर स्वयं समाप्त हो जाता है। जब विश्वास पूर्णतः ईश्वर में हो, तब सेवा में ही सच्चा सुख मिलता है। यही मेरी सच्ची पूजा है।”

अब विजय हर सुबह विद्यालय जाते हुए मंदिर की सीढ़ियों पर रुकता, हाथ जोड़कर मुस्कराता और बाबा को प्रणाम करता। अब उसकी आंखों में भी वही श्रद्धा की चमक थी, जो पहले वह केवल दूसरों में देखा करता था।

बाढ़ के बाद जब जीवन सामान्य हुआ, विजय ने विद्यालय में ‘मानव मूल्य’ नामक एक नई किताब पढ़ाना आरंभ किया। उस किताब का पहला पाठ “श्रद्धा का आधार” था।

योगेश गहतोड़ी

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