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समापवर्तन संस्कार

!! समापवर्तन का अर्थ तथा संस्कार की महिमा !!

उपनयन संस्कार के अनन्तर ब्रह्मचारी गुरुकुल में निवास करता है और वहां वेद आदिकी शिक्षा प्राप्त करता है । इस संस्कार में उसकी विद्या समाप्ति होती है और मंत्राभिषेकपूर्वक गुरुकी आज्ञा से स्नातक होता है । समावर्तन का सामान्य अर्थ है, गुरुकुल से शिक्षा ग्रहण कर अपने घर वापस आना । यह शिक्षा प्राप्ति का दीक्षान्त संस्कार है । इस संस्कार में ब्रह्मचर्य आश्रम– विद्याध्ययन की पूर्णता होती है और फिर विवाह के अनन्तर गृहस्थाश्रम प्रवेश की अधिकारसिद्धि होती है ।

वेदविद्या प्राप्तकर उसकी ब्रह्मचारी संज्ञा नहीं रहती बल्कि अब वह ‘स्नातक’ अर्थात् विद्या रूपी प्रवाह में स्नान किया हुआ कहलाता है ।
श्रुति का आदेश है—
आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सी: ।
अर्थात्– आचार्य को दक्षिणारूपमें यथाशक्ति धन देकर प्रजातंतु {संतान परम्परा} की रक्षा के लिए स्नातक द्विज गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे ।
इस विषय में महर्षि याज्ञवल्क्यजीका स्पष्ट निर्देश है–
वेदं व्रतानि वा पारं नित्वा ह्युभयमेव वा । अविलुप्तब्रह्मचर्यो लक्ष्ण्यां स्त्रियमुद्वहेत ।।
अर्थात् — समग्र अथवा एक या दो वेद का अध्ययन कर अस्खलित ब्रह्मचारी सुलक्षणा स्त्री से उद्वाह करे । वेद विद्या प्राप्त यह स्नातक विद्याव्रतस्नातक कहलाता है, वह चूँकि वेदादिके अध्ययन एवं स्वाध्यायसे महान ब्रह्मतेज से संपन्न होता है । अतः उस समय पिता तथा आचार्यके द्वारा भी मधुपर्क आदि के द्वारा पूज्य होता है ।।

गुरुद्वारा स्नातक के लिए उपदेश—

सत्यम वद । धर्मं चर । …….
पुत्र ! तुम सदा सत्य भाषण करना, आपत्ति पड़ने पर भी झूठका कदापि आश्रय न लेना; अपने वर्ण-आश्रम के अनुकूल शास्त्रसम्मत् धर्मका अनुष्ठान करना; स्वाध्यायसे अर्थात् वेदों के अभ्यास, संध्यावंदन गायत्री जप और भगवन्नाम-गुणकीर्तन आदि नित्यकर्ममें कभी प्रमाद न करना—
अर्थात् —
ना तो कभी उन्हें अनादरपूर्वक करना और न आलस्यवस उनका त्याग ही करना ।
गुरु के लिए दक्षिणाके रूपमें उनकी रुचिके अनुरूप धन लाकर प्रेम पूर्वक देना;

संतान परंपरा को सुरक्षित रखना उनका लोप न करना– अर्थात् शास्त्र विधि के अनुसार विवाहित धर्मपत्नी के साथ संतानोत्पत्तिका कार्य अनसक्तिपूर्वक करना ।।

जितने भी कर्तव्यरूपसे प्राप्त शुभ कर्म हैं उनका कभी त्याग या उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए अपितु यथायोग्य उनका अनुष्ठान करते रहना चाहिए ।
धन संपत्तिको बढ़ाने वाले लौकिक उन्नतिके साधनों के प्रति भी उदासीन नहीं होना चाहिए, इसके लिए भी वर्णाश्रम अनुकूल चेष्टा करनी चाहिए । पढ़ने और पढ़ाने का जो मुख्य नियम है, उसकी कभी अवहेलना या आलस्यपूर्वक त्याग नहीं करना चाहिए । इसी प्रकार अग्निहोत्र और यज्ञादि के अनुष्ठान रूप देवकार्य तथा श्राद्ध तर्पण आदि पितृकार्य के संपादन में भी आलस्य या अवहेलनापूर्वक प्रमाद नहीं करना चाहिए ।।

मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव…..

पुत्र ! तुम मातामें देवबुद्धि रखना, पितामें देवबुद्धि रखना, आचार्यमें देवबुद्धि रखना तथा अतिथिमें देव बुद्धि रखना । आशय यह है कि इन चारों को ईश्वर की प्रतिमूर्ति समझकर श्रद्धा और भक्ति पूर्वक सदा उनकी आज्ञा का पालन नमस्कार और सेवा करते रहना । जगत् में जो-जो निर्दोष कर्म है उन्हें करना चाहिए, जिनके विषय में जरा सी शंका हो उनका अनुकरण कभी नहीं करना चाहिए । अपनी शक्ति के अनुसार दान करने के लिए तुम्हें सदा उदारतापूर्वक तत्पर रहना चाहिए — क्योंकि बिना श्रद्धा किए हुए दान आदि कर्म असत् माने गए हैं । यही शास्त्र की आज्ञा है शास्त्रों का निचोड़ है यही गुरु एवं माता-पिता का अपने शिष्यों और संतानों के प्रति उपदेश है तथा यही संपूर्ण वेदों का रहस्य है इतना ही नहीं– अनुशासन भी यही है ईश्वर की आज्ञा तथा परंपरागत उपदेशका नाम अनुशासन है, इसलिए तुमको इस प्रकार कर्तव्य एवं सदाचार का पालन करना चाहिए ।।

साभार– गीता प्रेस गोरखपुर
लेखन एवं प्रेषण—
पं. बलराम शरण शुक्ल
नवोदय नगर, हरिद्वार

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