
प्रस्तावना
पठन, अर्थात् पढ़ना — यह केवल शाब्दिक अर्थ ग्रहण करने की क्रिया नहीं, बल्कि ज्ञान को आत्मसात् करने और बुद्धि से आत्मा की ओर यात्रा करने का एक माध्यम है। संस्कृत धातु “पठ्” से उत्पन्न यह शब्द मूलतः ध्वनि, वाणी और ज्ञान के ग्रहण का सूचक है। वैदिक काल से ही ऋषियों ने श्रवण, मनन और निदिध्यासन के साथ पठन को आत्मबोध की एक अनिवार्य प्रक्रिया माना है। जब पहला मंत्र उद्गाताओं के मुख से निकला, तब श्रोताओं ने उसे केवल सुना नहीं, “बल्कि उसे दोहराया, मनन किया और अंततः जिया।” इस प्रकार पठन की उत्पत्ति श्रुति परंपरा से हुई, जो आगे चलकर शास्त्रों, उपनिषदों और महाग्रंथों के रूप में विकसित हुई।
1. पठन आवश्यक क्यों है?
पठन आवश्यक इसलिए है कि यह अज्ञान के आवरण को हटाकर ज्ञान के प्रकाश को जाग्रत करता है। यह विचारों को स्पष्टता देता है, दृष्टिकोण को व्यापक बनाता है और मनुष्य को यांत्रिक जीवन से मुक्त कर चेतन जीवन की ओर ले जाता है। पठन न केवल बुद्धि का विकास करता है, बल्कि हृदय को भी संवेदना से परिपूर्ण करता है। यह आत्मोत्थान की उस यात्रा का द्वार है, जहां आत्म-साक्षात्कार के लिए शब्द माध्यम बन जाते हैं। अतः पठन केवल एक अभ्यास नहीं, बल्कि आत्मविकास की साधना है — जो मनुष्य को यथार्थ से जोड़ती है और दिव्यता की ओर ले चलती है।
2. पठन का आध्यात्मिक अर्थ
“पठन” शब्द जहाँ सामान्यतः बाह्य ग्रंथों के अध्ययन को दर्शाता है, वहीं आत्मोत्थान के संदर्भ में इसका अर्थ कहीं अधिक गूढ़, गंभीर और आत्मगामी है। संस्कृत की ‘पठ्’ धातु, जिसका अर्थ है चलना और उच्चारण करना, यह संकेत देती है कि पठन मात्र पढ़ना नहीं, बल्कि ज्ञानपथ पर चलने की साधना है — जिसमें शब्दों के माध्यम से आत्मा को जागृत किया जाता है। यह पांडित्य के संकलन का कार्य नहीं, बल्कि बोध की प्रक्रिया है, जिसमें ग्रंथों को पढ़ा जाता है, विचारों को पचाया जाता है और फिर उन्हें आत्मा में इस प्रकार उतारा जाता है कि वे जीवन का अंग बन जाएँ। इस प्रकार पठन आत्मज्ञान की दिशा में एक गतिशील और अंतर्मुखी यात्रा बन जाता है।
3. पठन का त्रैस्तरीय स्वरूप
पठन की प्रक्रिया केवल ग्रंथों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह तीन स्तर — श्रुति, मन और जीवन — जिनमें पठन विकसित होता है।
श्रुति-पठन — जिसमें वेद, उपनिषद, गीता तथा धर्मग्रंथों का श्रवण और पाठ किया जाता है। यह शब्द की साधना है, जहाँ श्रवण और मनन के माध्यम से सत्य वचन को ग्रहण कर अंतःकरण में प्रतिध्वनित किया जाता है।
मनो-पठन — जो आत्म-निरीक्षण, आत्म-विश्लेषण और अंतरदृष्टि का मार्ग है। इसमें हम अपने भीतर के विचारों, वासनाओं, भय और वृत्तियों को पढ़ते हैं, जिससे यह पठन आत्मज्ञान का सेतु बन जाता है।
जीव-पठन — जिसमें हम जीवन को एक जीवित ग्रंथ के रूप में देखते हैं — जहाँ प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक घटना एक पाठ है। इसका उद्देश्य करुणा, सहिष्णुता, क्षमा और विवेक जैसे गुणों का अर्जन है।
इस त्रैस्तरीय स्वरूप में पठन केवल एक साधना नहीं, बल्कि आत्मोत्थान की पूर्ण प्रक्रिया बन जाता है।
4. पठन और आत्मोत्थान के बीच संबंध
पठन केवल आत्मोत्थान का एक उपकरण नहीं, बल्कि एक उपाय है, जैसे बीज को अंकुरित होने के लिए जल की आवश्यकता होती है, वैसे ही आत्मा को जागृत करने के लिए ज्ञान के सिंचन की आवश्यकता होती है। पठन वही संस्कारात्मक जल है, जो अंतःकरण की भूमि को सींचता है और चेतना के बीज को अंकुरित करता है। इसके माध्यम से विवेक जन्म लेता है, जो आत्मोत्थान की पहली सीढ़ी है।
यदि “विवेकानंद” जैसा जागरण चाहिए, तो “वेद-विवेक” का पठन अनिवार्य है। साथ ही, पठन हमें अपने सीमित ‘अहं’ से बाहर लाता है। जब हम बृहत्तर सत्य, ब्रह्मविचार और व्यापक दृष्टिकोणों का अध्ययन करते हैं, तो हमारा ‘मैं’ स्वतः लघु प्रतीत होने लगता है। यही अहंकार के क्षय और आत्म-शुद्धि की दिशा है, जो अंततः आत्मोत्थान का मूल आधार बनती है।
5. पठन के वैदिक प्रमाण और उद्धरण
“सा विद्या या विमुक्तये” — ज्ञान वही है जो बंधनों से मुक्ति प्रदान करे; अतः पठन का उद्देश्य केवल सूचनाओं का संग्रह नहीं, बल्कि आत्मबोध द्वारा मुक्ति की प्राप्ति है। आत्मोत्थान में पठन की भूमिका को वेद-उपनिषदों ने अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दिया है:
मुंडकोपनिषद् — “तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्” — अर्थात जो आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहता है, उसे गुरु के सान्निध्य में रहकर गुरु और ग्रंथ दोनों का पठन करना चाहिए।
तैत्तिरीय उपनिषद् — “स्वाध्यायात् मा प्रमदः” — अर्थात स्वाध्याय से कभी विमुख मत हो, क्योंकि यह केवल अध्ययन नहीं, बल्कि ब्रह्मयज्ञ का अंग है।
ये प्रमाण दर्शाते हैं कि पठन आत्मोत्थान का वैदिक आधार है, जो जीवन को दिव्यता की ओर अग्रसर करता है।
6. पठन के तीन शत्रु — जिन्हें साधना है
पठन आत्मोत्थान की दिशा में एक सशक्त साधना है, परंतु इसकी यात्रा में कुछ आंतरिक शत्रु हैं जो इसे विकृत या निष्फल बना सकते हैं:
प्रमाद — आलस्य का वह स्वरूप, जिसमें मन पठन से बचता है और ज्ञान की दिशा में उदासीन बना रहता है।
अहंकार — विशेषतः पांडित्य का गर्व, जब ज्ञान को ही अंतिम लक्ष्य मान लिया जाता है और वह आत्मबोध की बजाय वाद-विवाद या प्रतिष्ठा का साधन बन जाता है।
अनुष्ठानहीनता — अर्थात पठन का जीवन में अनुप्रयोग न होना। पढ़ना और समझना तो होता है, पर उसे आचरण में नहीं उतारा जाता।
इन तीनों शत्रुओं पर साधना से विजय प्राप्त करना ही सार्थक पठन की दिशा में वास्तविक प्रगति है।
*7. आधुनिक संदर्भ में पठन का आत्मोत्थानकारी उपयोग
आज के युग में पठन अधिकतर सूचना-प्रधान हो गया है, ज्ञान-प्रधान नहीं। हम पढ़ते तो बहुत कुछ हैं, पर उसका संबंध आत्म-चिंतन या जीवन-परिवर्तन से नहीं जुड़ता। आत्मोत्थान की दिशा में पठन तभी प्रभावी होता है, जब उसे चिंतन और अनुकरण से जोड़ा जाए।
उदाहरणस्वरूप:
- भगवद्गीता का अध्ययन केवल श्लोक रटने तक सीमित न रहे, बल्कि वह कर्म समीक्षा का माध्यम बने
- उपनिषदों का पठन “मैं कौन हूँ?” जैसे आत्म-प्रश्नों को जागृत करे।
- ध्यान-साहित्य का पठन केवल मन को शांत भर न करे, बल्कि मानसिक संतुलन और आत्म-संवाद की दिशा में मार्गदर्शन करे।
- यदि आधुनिक पठन को केवल जानकारी के स्तर से ऊपर उठाकर आत्मिक प्रवृत्ति और जीवन-संस्कार से जोड़ा जाए, तो यह आज भी आत्मोत्थान का सशक्त साधन बन सकता है।
8. पठन से प्रकट होता है ब्रह्मज्ञान
पठन आत्मोत्थान की वह दीपशिखा है, जो अज्ञान के अंधकार को हरती है, आत्मा को उसके स्व-स्वरूप का दर्शन कराती है और सम्पूर्ण जीवन को यज्ञमय बना देती है। जब पठन केवल पृष्ठों तक सीमित न रहकर अंतःकरण में उतरता है, तब वह पूजन बन जाता है। जब शब्द केवल श्रुति नहीं, बल्कि आत्मा को स्पर्श करने वाले अर्थ बन जाते हैं, तब वह साधना बनता है। और जब ज्ञान केवल संग्रह नहीं, बल्कि जीवनचर्या में प्रवाहित होता है, तब वह आत्मोत्थान का स्वरूप ले लेता है।
यही पठन का परम उद्देश्य है कि वह ब्रह्मज्ञान की ओर ले जाए, जहाँ पाठ नहीं, स्वयं पाठक ही परम सत्य का साक्षात् अनुभव बन जाए। पठन के बारे में कहा गया है:
पढ़ो, मगर अर्थ को समझो सही,
समझो, मगर जीवन में उतारो वही।
जीओ, मगर आत्मा की रोशनी से,
यही है राह मिलन की सत्य ब्रह्म से।
पठतु बुद्ध्या युक्तः सदा, न केवलं शब्दलालनम्।
गृह्णातु तत्त्वं जीवने, आत्मप्रकाशाय साधनम्॥
(अर्थात् व्यक्ति सदा बुद्धिपूर्वक पढ़े, न कि केवल शब्दों का उच्चारण करे। वह जीवन में उस ज्ञान के तत्त्व को अपनाए, जिससे आत्मा का प्रकाश हो सके।)
“अत: पठन ही वह द्वार है, जिससे आत्मा ब्रह्म के आलोक में प्रवेश करती है।”
योगेश गहतोड़ी