
श्लोक:
या देवी सर्वभूतेषु मां कात्यायनी रूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।
यह श्लोक “या देवी सर्वभूतेषु…” दुर्गासप्तशती (जिसे देवीमहात्म्य या चण्डीपाठ भी कहा जाता है) से लिया गया है, जो मार्कण्डेय पुराण के अंतर्गत आता है। सप्तशती के अर्जुनकाण्ड (११वें अध्याय) में देवताओं द्वारा आदिशक्ति की स्तुति करते समय यह श्लोक प्रकट होता है। यहाँ देवी को “सर्वभूतेषु” यानी समस्त प्राणियों में विभिन्न रूपों से विद्यमान बताया गया है। विशेषतः इस पंक्ति में देवी के कात्यायनी स्वरूप की स्तुति की गई है, जो महिषासुर-मर्दिनी के रूप में शक्ति और विजय का प्रतीक हैं। इस स्तोत्र की पृष्ठभूमि यह है कि जब देवताओं ने महिषासुर के अत्याचार से पीड़ित होकर आदिशक्ति का आवाहन किया, तब देवी ने अनेक रूपों में प्रकट होकर असुरों का संहार किया। उनकी महिमा को स्मरण करते हुए देवताओं ने “या देवी सर्वभूतेषु…” के मंत्रों से उन्हें नमन किया, जो आज भी नवरात्रि, दुर्गा-पूजा और देवी-उपासना में अत्यंत श्रद्धा से गाए और जपे जाते हैं।
“या देवी सर्वभूतेषु…” स्तोत्र का महत्व इस बात में निहित है कि यह देवी की सर्वव्यापकता और उनके अनंत स्वरूप की अनुभूति कराता है। यह स्तोत्र प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक तत्व और प्रत्येक भाव में कभी शक्ति के रूप में, कभी बुद्धि के रूप में, कभी श्रद्धा के रूप में, तो कभी करुणा, क्षमा या संतोष के रूप में देवी की उपस्थिति को स्वीकार करता है। इससे भक्त के भीतर यह भाव जागृत होता है कि देवी केवल पूजागृह या मूर्ति तक सीमित नहीं हैं, बल्कि संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त हैं। विशेष रूप से “मां कात्यायनी” का उल्लेख शक्ति, साहस और धर्मसंरक्षण की स्मृति जगाता है। इस स्तोत्र का जप साधक को विनम्रता, भक्ति और समत्व की ओर ले जाता है तथा यह स्मरण कराता है कि हर जीव और हर परिस्थिति में दिव्य शक्ति की झलक मौजूद है।
नवरात्रि में देवी के नौ स्वरूपों की उपासना होती है, जिनमें छठे दिन मां कात्यायनी की आराधना की जाती है। कात्यायनी शक्ति का वह रूप हैं जिन्होंने महिषासुर का वध कर धर्म की रक्षा की, इसलिए इन्हें साहस, विजय और धर्म-संरक्षण की देवी कहा जाता है। नवरात्रि के दौरान साधक मां कात्यायनी का ध्यान, मंत्र-जप और पूजन करते हैं, जिससे उन्हें जीवन में आत्मबल, साहस और निडरता प्राप्त होती है। खासकर कुमारियाँ और युवा कन्याएँ मां कात्यायनी की पूजा करती हैं, क्योंकि भागवत पुराण के अनुसार ब्रज की गोपियों ने श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने हेतु कात्यायनी-व्रत किया था। इस कारण मां कात्यायनी को सौभाग्य, विवाह और जीवन-सिद्धि की अधिष्ठात्री देवी भी माना जाता है। नवरात्रि की साधना में कात्यायनी की आराधना साधक को कठिनाइयों पर विजय पाने, आध्यात्मिक शक्ति अर्जित करने और जीवन के लक्ष्य की ओर अग्रसर होने का मार्ग प्रदान करती है।
माँ कात्यायनी के स्वरूप की उत्पत्ति की कथा अत्यंत प्रेरणादायी है। महर्षि कात्य (जिन्हें कत नामक ऋषि का वंशज माना जाता है) बड़े तपस्वी और ऋषि-महर्षियों में अग्रगण्य थे। उन्होंने वर्षों तक कठिन तप करके यह प्रार्थना की कि देवी स्वयं उनकी पुत्री रूप में प्रकट हों और देवताओं का भार हल्का करें। उनके गहन तप से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने वचन दिया कि वे उनके घर जन्म लेंगी। जब महिषासुर के अत्याचार असह्य हो गए और देवताओं ने आदिशक्ति से सहायता मांगी, तब भगवान विष्णु, शिव और अन्य देवताओं के तेज से एक दिव्य प्रकाश उत्पन्न हुआ। उस प्रकाश ने महर्षि कात्य के आश्रम में जन्म लिया और एक अद्भुत तेजस्विनी कन्या के रूप में प्रकट हुईं। ऋषि कात्य ने उन्हें पुत्री रूप से स्वीकार किया और उनका नाम पड़ा कात्यायनी। यही कात्यायनी आगे चलकर सिंहवाहिनी, त्रिनेत्री, चार भुजाओं वाली अद्भुत स्वरूपिणी देवी बनीं जिन्होंने महिषासुर का वध कर धर्म और देवताओं की रक्षा की। इस प्रकार कात्यायनी का स्वरूप ऋषि कात्य के तप और देवताओं के सामूहिक तेज से प्रकट हुआ, जो शक्ति, साहस और धर्मरक्षा का दिव्य प्रतीक है।
माँ कात्यायनी के रूप-लक्षण अत्यंत दिव्य और भव्य हैं। उनका स्वरूप तेजस्वी, करुणामयी और वीर्यशाली बताया गया है। उनके चार भुजाएँ हैं—दो भुजाओं में वे कमल और तलवार धारण करती हैं, तीसरे हाथ में ढाल (अभयमुद्रा) और चौथे में वरमुद्रा से भक्तों को आशीष देती हैं। उनका वाहन सिंह है, जो अदम्य साहस, शक्ति और निर्भीकता का प्रतीक है। साथ ही वे कमलासन पर भी विराजमान दिखाई देती हैं, जो निर्मलता, पवित्रता और आध्यात्मिक ऊँचाई का द्योतक है। उनका मुखमंडल अत्यंत प्रसन्न और आभायुक्त है, जिसमें करुणा और दृढ़ता का अद्भुत संतुलन झलकता है। इस प्रकार कात्यायनी का सिंहवाहन रूप जहाँ शत्रुनाश और धर्मरक्षा का प्रतीक है, वहीं कमलासन पर उनका विराजना साधक को शांति, निर्मलता और आध्यात्मिक उन्नयन की प्रेरणा देता है।
माँ कात्यायनी, जिनकी स्तुति “या देवी सर्वभूतेषु मां कात्यायनी रूपेण संस्थिता” में की गई है, अपने दिव्य स्वरूप में चार भुजाओं वाली और सिंहवाहिनी हैं। उनके हाथों में धारित तलवार धर्म की रक्षा और अधर्म का नाश करने का प्रतीक है, जबकि ढाल भक्तों को भयमुक्त करने और सुरक्षा प्रदान करने का द्योतक है। एक हाथ में धारण किया कमल पवित्रता, सौंदर्य और आध्यात्मिक उन्नति का प्रतीक है, और वरमुद्रा आशीर्वाद और इच्छाओं की पूर्ति का संकेत देती है। सिंहवाहन उनका साहस, शक्ति और निर्भीकता का प्रतीक है। इस प्रकार उनके प्रत्येक अस्त्र और प्रतीक न केवल भौतिक शक्ति को दर्शाते हैं, बल्कि भक्तों के लिए आध्यात्मिक जागृति, साहस और करुणा की शिक्षा भी प्रदान करते हैं।
श्लोक में “कात्यायनी रूपेण संस्थिता” का शाब्दिक अर्थ यह है कि देवी “कात्यायनी” के रूप में स्थापित या प्रकट हैं। यहाँ “कात्यायनी” शब्द का अर्थ है ऋषि कात्य के तप से उत्पन्न हुई देवी, अर्थात वे ऋषि कात्य की तपस्या द्वारा प्रकट हुई पुत्री स्वरूपिणी हैं। “रूपेण” कारक रूप में प्रयुक्त है, जिसका अर्थ “रूप में” या “स्वरूप द्वारा” है। “संस्थिता” क्रियावाचक विशेषण है, जिसका अर्थ है “स्थिर रूप से स्थित होना” या “स्थापित होना।” अतः पूरे पद का शाब्दिक अर्थ बनता है: “देवी कात्यायनी के रूप में संस्थित हैं।” यह श्लोक उनके दिव्य, स्थिर और शाश्वत स्वरूप को व्यक्त करता है, जो भक्तों के हृदय में दृढ़ भक्ति और विश्वास उत्पन्न करता है।
श्लोक के अंत में आवृत्त रूप में प्रयुक्त “नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः” का अत्यंत महत्व है। यहाँ “नमः” का अर्थ है श्रद्धापूर्वक प्रणाम या अभिवादन और इसका तीन बार पुनरावृत्ति होना देवी के प्रति असीम भक्ति, निष्ठा और विनम्रता को व्यक्त करता है। त्रिगुणित नमस्कार से यह संकेत मिलता है कि श्रद्धा, आत्मसमर्पण और भक्ति इन तीनों स्तरों पर देवी को नमन किया जा रहा है। यह न केवल उनके भौतिक स्वरूप का सम्मान है, बल्कि उनके सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ स्वरूप के प्रति पूर्ण समर्पण और श्रद्धा भी दर्शाता है। साथ ही, यह मंत्रात्मक उच्चारण साधक के हृदय में भय, संशय और अहंकार को नष्ट करके दिव्य शांति और आध्यात्मिक ऊर्जा उत्पन्न करता है। इस प्रकार, “नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः” देवी की महिमा, भक्तिप्रवृत्ति और साधना के उद्देश्यों का सार है।
इस श्लोक का नित्य साधना में विशेष महत्व है। इसका नियमित उच्चारण और ध्यान करने से साधक के हृदय और मन में भक्ति, समर्पण और आंतरिक शांति का संचार होता है। प्रत्येक “नमस्तस्यै” का उच्चारण देवी के प्रति श्रद्धा, सम्मान और आत्मसमर्पण की पुष्टि करता है, जिससे मन की व्याकुलता और अहंकार घटता है। नित्य साधना से साधक में साहस, आत्मबल और धर्मपरायणता का जागरण होता है और भय, दुर्बलता तथा नकारात्मक भावनाएँ दूर होती हैं। यह अभ्यास न केवल आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है, बल्कि जीवन में संतुलन, सकारात्मक ऊर्जा और दिव्य आशीर्वाद का अनुभव भी कराता है, जिससे साधक नित्य कर्मों और चुनौतियों का सामना दृढ़ता और विश्वास के साथ कर पाता है।
इस श्लोक में देवी के सर्वभूतों में निवास का भाव अत्यंत गहन और दार्शनिक है। इसका अर्थ यह है कि देवी केवल किसी विशेष स्थान, मूर्ति या मंदिर में ही नहीं, बल्कि सभी जीवों और प्राणियों में व्याप्त हैं। प्रत्येक प्राणी—मनुष्य, पशु, पक्षी, जल और वायु उनकी ऊर्जा और चेतना का प्रतिबिंब है। इस दृष्टि से साधक यह समझता है कि देवी की उपासना केवल बाहरी पूजा तक सीमित नहीं, बल्कि सर्वभूतों में उनके तेज, करुणा और शक्ति को पहचानकर सभी प्राणियों के प्रति आदर, करुणा और समानता का भाव विकसित करना ही वास्तविक भक्ति है। यह शिक्षण साधक को अहिंसा, समत्व और सर्वधर्मसम्मान की ओर प्रेरित करता है, क्योंकि देवी का निवास हर जीव में समान रूप से है।
वेदों और पुराणों में माँ कात्यायनी को आदिशक्ति का अवतार माना गया है। मार्कण्डेय पुराण के अंतर्गत दुर्गासप्तशती में वर्णित “या देवी सर्वभूतेषु…” स्तोत्र में उनका कात्यायनी रूप विशेषतः महिषासुर-मर्दिनी के रूप में प्रतिष्ठित है। पुराणों के अनुसार, महर्षि कात्य के तप से उत्पन्न हुईं कात्यायनी ने देवताओं की सहायता हेतु असुरों का संहार कर धर्म की स्थापना की। उनके चार भुजाओं वाले, सिंहवाहन और कमलासन पर विराजमान स्वरूप में वे शक्ति, साहस, करुणा और धर्मरक्षा की मूर्त प्रतिमा हैं। भागवत पुराण में उनका व्रत सौभाग्य, विवाह और जीवन-सिद्धि का अधिष्ठान मानते हुए वर्णित है। वे केवल भय और अधर्म नाश की देवी ही नहीं, बल्कि भक्तों के हृदय में आंतरिक साहस, आत्मबल और समत्व का संचार करने वाली शक्ति हैं। श्लोक में त्रिगुणित “नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः” उनके सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान और अनंत स्वरूप के प्रति निष्ठा, भक्ति और आत्मसमर्पण को प्रदर्शित करता है। नवरात्रि और दैनिक साधना में उनकी आराधना से साधक न केवल आध्यात्मिक बल प्राप्त करता है, बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म, शक्ति और विजय के मार्ग पर स्थिर रहता है।
योगेश गहतोड़ी “यश”