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नीदरलैंड के विख्यात हिंदी विद्वान्, हिंदी के पुरोधा प्रोफेसर डॉ. मोहन कान्त गौतम नहीं रहे।

पिछले बार घर आये थे तो उन्होंने अपनी पुस्तक ‘भक्ति’ मुझे भेंट की थी। मैंने अपना काव्य -संग्रह ‘जब मां कुछ कहती, मैं चुप रह सुनता’ उन्हें भेंट किया था।
उनकी विनम्रता में बालपन सा था। वे हर सीख के लिए खुले थे।‌
वे 1960 में नीदरलैंड्स में आये। वे लायडन विश्वविद्यालय में एन्थ्रोपोलोजी के प्रोफेसर रहे।
लायडन यूरोप का सबसे पुराना विश्वविद्यालय है। आइंस्टाइन भी इसी विश्वविद्यालय में पढ़े और प्रोफेसर रहे। लायडन विश्वविद्यालय के लगभग दस प्रोफ़ेसरों को नोबेल पुरस्कार मिल चुका है। यह अपने आपमें बहुत बड़ी बात है।
मोहन कान्त गौतम ने इसी विश्वविद्यालय में दसकों तक पढ़ाया।
उन्होंने नीदरलैंड्स में भारतवंशियों (सूरीनामी भारतीयों और सीधे भारत से नीदरलैंड्स आये) को जोड़ने का अद्भुत काम किया। ओहम टीवी की नीदरलैंड्स में शुरूआत और नीदरलैंड्स हिंदी परिषद के गठन में भी उनका योगदान रहा। उनके एक आलेख के अनुसार, उनके ही शब्दों में
“सूरीनाम की स्वतंत्रता के बाद Netherlands में एक – डेढ लाख भारतवासी (हिन्दुस्तानी ) आजकल हैं। उनकी स्वयं चलित संस्थाये हैं। जिनमें महात्मा गाँधी जी की ‘हिन्दी राष्ट्र भाषा प्रचार समिति’, वर्धा के पाठयक्रमों को पढ़ाया जाता है। अभी तक कोई 24000 विद्यार्थियों को हिन्दी की सनदे मिल चुकी है। मैंने ही संस्थाओ को बनाने में बहुत सहायता दी है।”
वे एक स्थान पर लिखते हैं “मेरे ही मित्र श्री वान हेबोकान और श्री फ्रांसिस मास्त्रिरंत ने हिन्दी को डच टीवी और रेडियो से प्रचार प्रसार किया।”
उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी। वे चलते फिरते पुस्तकालय थे।
आपके स्नेह का आभार एवं विनम्र श्रद्धांजलि !!!🙏🏽🙏🏽
रामा तक्षक

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