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धधकता अम्बर


आसमान जल रहा है, और चाँद धीरे-धीरे,
पर्वतों पर अंगार धधक रहा है धीरे-धीरे।

सुलग रही है धरती पवन के झोंकों से,
समंदर और नदियाँ भी उफन रही हैं धीरे-धीरे।

लगा के आग घूमती है हवाओं की लपट,
झकोरों में बिखरती है चिनगारियाँ—धीरे-धीरे।

अम्बर के रंग भी अंगारों-से दहक रहे हैं,
आग उगल रही है अब प्रकृति भी धीरे-धीरे।
आर एस लॉस्टम

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