
उसी पाले में
आजकल बीतते हैं दिन बड़े सुकून में,
सुबह-सुबह डाल लेता हूँ गमछा गले में।
पल गुजरते हैं पहर-दोपहर की लय में,
कभी उलझनों में, कभी अपने ही भय में।
जिसे लोग समझते रहे ताक़त का सहारा,
देखा वो भी बिखर गया वक्त के किनारा।
धन-दौलत, सत्ता, सब मृगतृष्णा बन जाते,
खेत-खलिहान, घर-आँगन भी रेत-से बह जाते।
शराफ़त की चादर हो या अहंकार का गहना,
सब छोड़कर जाना है कुछ भी नहीं रहना।
अजब-ग़जब का खेल है वक्त का चक्का,
राजा हो या भिखारी सबको देता धक्का।
चक्र ये चलता है, कहीं ठहरता नहीं,
रुक जाए तो रुक जाता है पूरा किस्सा यहीं।
सदा वही रहता है, जो सत्य का सहारा है,
बाक़ी सब मिट जाते हैं वक्त ही गवाह सारा है।
आर एस लॉस्टम