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क्या सच मे वह कोई कली सी थी

क्या सच मे वह कोई कली सी थी,गर हाँ तो फिर वह प्रसून क्यूं न भई,
कोमल पंखुरी थी गर वो जो,,तो सुनो,,जननी वो ,जनक की कैसे रही,,
क्या सच मे केश बदरी से थे, गर हाँ तो वर्षा क्यूं थी न भई ,
क्या सच है कि वो नाजुक थी बहुत, गर हाँ तो शक्ति बन वह टकरा क्यूं गई।।

क्या पंख नही थे रहे उसके ,,गर हाँ,तो अंतरिक्ष वो फिर कित गई,
क्या पांव मे भी दमखम तक न था ,गर हाँ,तो वह बढ़ती थी कैसे गई,
कहते कि भुजाएं नाजुक थी,फिर पत्थर तोड़ती वो कैसे रही,

अच्छा ज्ञान कुछ कम था रहा,फिर जुबां वह बेजुबान की कैसे रही,
क्या सच मे नशा वह मय सी थी ,यदि हाँ,तो लडखडा फिर स्व क्यू न गई,
क्या सब मात्र उपमाएं थी,या कविता को बस कह थी दी गई।।

वह देह से रही इक नारी थी,तो बेचारी क्यू थी कह दी गई,
यह कारण तो सब यूँ था रहा,कि आश्रित थी वह सदा रही,
गरिमा थी तो वैभव मे लज्जा ,जो बता थी दी उसे सब थी गई ।।

वह श्रम की रही परिचायिका थी ,शायद धाय थी बता दी वह दी गई ,
क्या सच है आस्तित्व ही न था उसका,गर हाँ तो गार्गी कौन थी रही,
गर वह भी अपवाद सरल था रहा ,तो माँ तो हर घर ही थी रही।।

ये देह का प्रश्न तो तनिक न था ,ये मानसिकता थी बस जो थी उत रही,
लुुभाया था पुरुषों ने उसे,कहा जैसे वह करती थी गई,
प्रश्न सुलझा अबला का न था रहा, सबला कह दी फिर कैसे वह गई,
क्या प्रश्न धन या तन का था केवल,जो अचल, अचला मे बंट थी गई।।

सौन्दर्य उपमा बस खेल सा था जो पुरुष को रिझाने थी सब रही,
वह खुद तो अप्रतिम मूर्त थी,पर गढी गई, पुरुषत्व के हित ही रही,,
बस यही से खेल कौतुक का रहा,खिलौना जो वह नित बनती रही।।

अतृप्त ह्रदय की प्यास वह थी,पौरुष की तड़प व श्वास वह रही,
तुम्हे बताऊँ गर मैं जीवन उसका,तो जलती कोयला वह आग तपी,,
जो सुप्त जागती नींद वह थी,पर ऑख अपनी किसी रात न थी।।

संतोष की असली सोपान वह थी,थके पथिक की अंतिम पडाव वह थी,
कोरे कागज पर लिखने को,इक प्रबल रचित इतिहास वह थी।।

वह वस्त्र नही इक मंत्र सी है जो आह्वान आहुति यज्ञ रही ,
उसकी देह कोई उद्घोष न थी, प्रज्वलित अग्नि की ज्योति रही,
वह सुकून नही प्रेम का केवल, पदचिन्ह वह सीप बीच मोती रही।।

वह कटाक्ष प्रहार की वस्तु नही,जीवंत श्रृंगार को पोषित रही,
वासना,रति या फिर अतृप्त नही,अलंकृत सुधा सुगंधित रही,
अंग केवल वासनात्मक आह्वान नही,वह पूर्णाहुति की सूची रही।।

वह पूजा नही, देवालय है,अर्चना जिसमे की सृजित नित है,
वह अर्थ व्यर्थ का अनर्थ नही,वह समग्र भाषा का ज्योतिर्लिंग है,
वह गंध सुंगध या मंद नही,अरविन्द की कौतुक कोशिश है ।।

वह अथाह, गुप्त और सुप्त जो है,रत्नाकर स्व मे समेटी है,
तुम आंचल कहते जिसे छांव की हो, वह आसमान की धोती है,
वह कौन कहे कि कौन है वह,वह माँ,बावज,बहुत बेटी है।।

नारी की गरिमा सौंदर्य नही,माला वह सुच्चे मोती है,
शरणागत की अंतिम राह वह रही, तृप्त अतृप्त को वह संजोती है,
कौन है नारी,जो कह दी गई, जो न भी कही,वह घोषित है।।

पूछा था नारी कौन किधर, सकते न कह वह शोषित है ,
उससे पूछो तो बस गरिमा,पुरुषत्व की वासना आरोपित है,
वह वो जो प्रकृति का सौंदर्य है,वह जो सब स्व सुशोभित है।।


संदीप शर्मा सरल

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