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सोने की चिड़िया फिर से उड़ने लगी है पर रोकना कौन चाहता है?

हमने किताबों में पढ़ा कि भारत कभी सोने की चिड़ीया था। बचपन में जब ये पंक्तियाँ दोहराते थे, तब नहीं समझ आता था कि सोना सिर्फ धन-दौलत नहीं, बल्कि विचार, विज्ञान, सहिष्णुता और आत्मबल का प्रतीक था। फिर वक्त ने पलटी मारी विदेशी आए, लूटा, बांटा, और गुलाम बना लिया।

अब तलवारें नहीं चलतीं, पर लड़ाई आज भी जारी है सोच पर कब्जा करने की लड़ाई, नीतियों को अपने हितों में मोड़ने की लड़ाई, और सबसे गहरी भारत को उसकी संभावनाओं से दूर रखने की लड़ाई।

मैं मानता हूँ कि अमेरिका बीते सौ वर्षों से ताकतवर है। लेकिन वह ताकत तकनीक से ज्यादा, रणनीति और नियंत्रण’ की रही है। इतिहास गवाह है जिसने भी अमेरिका के हितों को चुनौती दी, उसे या तो युद्ध के नाम पर घेरा गया, या आर्थिक-राजनीतिक दांवों से घुटने टेकने पर मजबूर किया गया।

अब वो निगाह भारत पर है। और क्यों न हो? क्योंकि अब भारत केवल सपने नहीं देख रहा अब वह उन्हें पूरा भी कर रहा है।

आज जब हमारे देश के उद्योगपति वैश्विक मंच पर देश का परचम लहरा रहे हैं, जब गांव-गांव तक इंटरनेट पहुंच चुका है, जब भारत डिजिटल इंडिया से लेकर मेक इन इंडिया तक के रास्ते पर चल पड़ा है तभी ऐसे हमले तेज हो जाते हैं जो पहले सिर्फ शक की तरह लगते थे, लेकिन अब रणनीति की तरह नज़र आते हैं।

क्या ये महज संयोग है कि जब अडानी समूह ग्रीन एनर्जी में भारत को आत्मनिर्भर बनाने की ओर बढ़ता है, तो तभी रिपोर्ट आ जाती है जो उसकी छवि पर चोट करती है? क्या ये सिर्फ आलोचना है या वो तीर हैं जो देश के आत्मविश्वास को भेदने के लिए छोड़े जा रहे हैं?

मुझे किसी भी पूंजीपति को देवता कहने की ज़रूरत नहीं लगती लेकिन यह ज़रूरी ज़रूर लगता है कि जो भारत को वैश्विक ताकत बना सकते हैं, उन्हें बिना मुकम्मल तर्क और प्रमाण के बदनाम न किया जाए।

और देखिए, भारत के बढ़ते आत्मबल से किसे तकलीफ हो रही है।

हाल ही में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एपल के सी ई ओ टिम कुक को नसीहत दी भारत में आई फोन मत बनाओ, वे अपना ख्याल खुद रख सकते हैं।

ये बात केवल व्यापार की नहीं है ये उस बेचैनी का बयान है जो भारत की आत्मनिर्भरता से उपज रही है। जब भारत आई फोन बना सकता है, जब भारत तेल की निर्भरता से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है, जब वो अपनी नीति और तकनीक खुद तय करना चाहता है तब महाशक्तियों को लगता है कि अब भारत उनकी पकड़ से छूटता जा रहा है।

भारत की इस उड़ान से कुछ लोग डरे हुए हैं और वो डर, अब विरोध के रूप में उतर रहा है।

दुख की बात ये है कि कई बार ये हमले बाहर से नहीं, अंदर से आते हैं। जब अपने ही देश के कुछ लोग विदेशी रिपोर्टों को सत्य का आखिरी दस्तावेज़ मान लेते हैं, लेकिन भारत की उपलब्धियों पर उन्हें शक होता है तब लगता है कि लड़ाई केवल सीमाओं पर नहीं, सोच के भीतर भी लड़ी जानी है।

मुझे ये कहना कठिन नहीं, पर कड़वा ज़रूर लगता है आज भारत को सबसे ज़्यादा खतरा अपने भीतर के जयचंदों से है।

ऐसे लोग, जो अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर देश को बांटने की आज़ादी चाहते हैं। ऐसे बुद्धिजीवी, जो भारत की हर पहल में खोट ढूंढते हैं, पर विदेशी शब्दों को परम सत्य मानते हैं। और ऐसे नेता, जो अपने निजी राजनीतिक स्वार्थ के लिए भारत की छवि को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर गिराते हैं। हमें सवाल ज़रूर पूछने चाहिए पर उनका आधार राष्ट्रहित हो।

आलोचना करें पर उद्देश्य सुधार हो, न कि बदनाम करना।

मुझे डर इस बात का नहीं कि कोई बाहरी ताकत भारत को हरा देगी। डर इस बात का है कि हम आपस में उलझकर उस भारत को खो बैठेंगे, जो हम बन सकते हैं।

क्या हम फिर से वही भूल दोहराने जा रहे हैं?
क्या हम फिर से अपनी ही चुप्पी से भारत को कमजोर बनने देंगे?
देश हमें पुकार रहा है क्या हम सुन रहे हैं?

त्रिभुवन लाल साहू(ई ए)
भारतीय इस्पात प्राधिकरण
दुर्ग,छत्तीसगढ़

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