
सम्बन्ध— अब अगले दो मंत्रों श्लोक ६ एवं श्लोक ७ में इन परब्रह्म परमेश्वर को जानने वाले महापुरुष की स्थिति का वर्णन किया जाता है ।।
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ।। ६ ।।
व्याख्या— इस प्रकार जो मनुष्य प्राणी मात्र को सर्वाधार परब्रह्म है पुरुषोत्तम परमात्मा में देखता है और सर्व अंतर्यामी परम प्रभु परमात्मा को प्राणी मात्र में देखता है, वह कैसे किससे घृणा या द्वेष कर सकता है । वह तो सदा सर्वत्र अपने परम प्रभु के ही दर्शन करता हुआ,
{गीता ६।२९।३०}
मन ही मन सबको प्रणाम करता रहता है तथा सबकी सब प्रकार से सेवा करना और उन्हें सुख पहुँचाना चाहता है ।।६ ।।
यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः ।
तत्र कः मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ।।७।।
व्याख्या— इस प्रकार जब मनुष्य परमात्मा को भली भांति पहचान लेता है, जब उसकी सर्वत्र भगवद्’दृष्टि हो जाती है– जब वह प्राणीमात्र में एकमात्र तत्त्व श्री परमात्मा को ही देखता है, तब उसे सदा – सर्वत्र परमात्मा के दर्शन होते रहते हैं । उस समय उसके अंतःकरण में शोक मोह आदि विकार कैसे रह सकते हैं ? वह तो इतना आनंद मग्न हो जाता है कि, शोक – मोहादि विकारों की छाया भी कहीं उसके चित्त प्रदेश में नहीं रह जाती । लोगों के देखने में वह सब कुछ करता हुआ भी वस्तुतः अपने प्रभु में ही क्रीडा करता है,
{गीता ६।३१}
उसके लिए प्रभु और प्रभु की लीला के अतिरिक्त अन्य कुछ रह ही नहीं जाता ।। ७ ।।
साभार — गीता प्रेस
लेखन एवं प्रेषण—
साधक बलराम शुक्ल
नवोदय नगर, हरिद्वार