
फिर किसी दिन-
मैं खाली वक्त में लिखूंगी
वो सारे सुनहरे लम्हें
जिनको मैंने सोचा तो जरूर था
लेकिन उनको मैं जी नही पाई।
वो सारी खिलखिलाती सुबहें
जो मेरी खिड़कियों से झांकती तो थी
मैंने उन्हें देखा भी था
लेकिन उनको अपने आगोश में
भर नही पाई।
वे शाम की जलती दीवा-बाती
जो मेरे आँगन तुलसी बिरवा
उतर आती थी
जिसने किया था घर मेरा रौशन
लेकिन स्वयं को उनमें खो नही पाई।
वे बारिश की बूंदें
जिन्हें मैं अपनी हथेलियों में
थाम लिया करती थी
उनको महसूस तो खूब किया था मैंने
लेकिन उनमें भीग नही पाई।
वे नगमें जो मेरे होठों पर आये थे कभी
जिन्हें फिर कभी मैं गुनगुना न सकी
वही सपनें बन मेरी पलकों में जले
लेकिन मेरी रश्मिप्रभा न बन सके।
शायद–
जिस दिन मैं इस दुनियां से परे
स्वयं से रूबरू हो जाऊँगी
तब उन सारी नामकम्वल आरजूओं के
मुक्कवल गीत लिख जाऊँगी !!
डॉ पल्लवी सिंह 'अनुमेहा'
समीक्षिका, लेखिका एवं कवयित्री
बैतूल, मध्यप्रदेश