
प्रकृति प्रदत्त उपहार मिला है,
हरियाली श्रृंगार मिला है!
भाव लहरिया कहती उठकर,
मानवता का बिगुल बजाएं !!
सबमें सेवाभाव जगाएं!
किरणें तप्त तपाती तन को,
तपन नहीं है भाती मन को!
देख दुर्दशा धरणी का अब,
रोना आता है जन-मन को!!
शीतल मंद समीर नहीं अब,
हुआ प्रदूषित वन उपवन है!
प्राण वायु का पता नहीं है,
छछन रहा अब जीवन धन है!!
सोचो और विचारो मानव,
किसके नादानी का कुफल है!
“जिज्ञासु” जनमन अभिलाषा,
व्यथित स्वार्थ में क्यों प्रतिपल है!!
कमलेश विष्णु सिंह “जिज्ञासु”