
बसा प्रकृति की गोद में, यह सुन्दर संसार।
गिरि, सरि, जंगल संग हैं, झरने विविध प्रकार।।
प्रकृति उजड़ती दिख रही, सड़क किनारे वृक्ष।
देखो सारे कट गये, है सरकार सुदक्ष।।
बरगद, पीपल, आम अरु, जामुन, बेल, लवंग।
शीशम, पाकर, खैर सब, काटे जंगल संग।।
आग बरसता सूर्य है, तपती दिन व रात।
धरती से सब सुलगते, पल-पल हो ज्यों घात।।
नहीं सुखी जीवन रहा, सूनि प्रकृति की गोद।
वृक्ष नहीं कहुँ दिख रहे, रहा न मन में मोद।।
असमय वर्षा, बाढ़ व, गर्मी का ये बार।
सहन नहीं अब हो रहा, मन सबका गयो हार।।
वृक्षारोपड़ सब करें, संरक्षण नहिं कोय।
इसलिए सब लुप्त हों, वृक्ष सूखकर सोय।।
जग निर्भर है प्रकृति पर, प्रकृति खड़ी मुँह बाय।
सुरसा-सी सब लीलने, लगे चहुँ दिशि धाय।।
हर घर, चौराहे सजें, वृक्षों से एक बार।
संरक्षण इनका सतत् हो, सुन्दर नवचार।।
वृक्षों से हो हवा में, नमी सदा सुख चैन।
शान्तिपूर्ण जीवन कटे, बोले सब मृदु बैन।।
वृक्ष लगाओ, पाइये, जीवन सुख से भाय।
बरना यों ही बढ़ेगी, गर्मी वेगहिं धाय।।
हरियाली फैलाइये, बाहर-भीतर वृक्ष।
होंय नगर व गाँव के, इसमें सबका पक्ष।।
नदियाँ पानी से भरें, वृक्ष लगें चहुँ ओर।
झरने नित झर-झर बहें, होय नित्य नयी भोर।।
सूर्योदय-सूर्यास्त की, प्रभा देख नवगान।
उमड़े फिर मानव हृदय, हो पिक-सुक कलगान।।
फिर से आल्हा-गान हो, वर्षा ऋतु जब आय।
खेती में देशी मिले, खाद सुनो सब भाय।
मिट्टी ने उपजाऊपन, सब खोया मम भ्रात।
आगी में सब संग झुलस, महि सहती है घात।।
वृक्ष अगर तो स्वर्ग हो, वृक्ष नहीं तो नर्क।
वृक्षों से संसार का, रहे सन्तुलन ढर्क।।
मानव को अब छोड़ना, होगा स्वारथ खेल।
वरना ये पिस जायेगा, डूबे जीवन रेल।।
रचना-
जुगल किशोर त्रिपाठी
बम्हौरी, मऊरानीपुर, झाँसी (उ०प्र०)