
अपने अहं को बनाये रखने के लिए द्वेषवश अपनी पत्नी को छोड़कर पुन: मित्र के साथ वापस आने वाले राजा पुरन्जय और उसके मित्र अविज्ञात की कहानी-
एक बार राजा पुरन्जय अपने मित्र अविज्ञात के साथ जंगल में शिकार खेलने गया। वहाँ दोनों मित्र एक-दूसरे से बिछुड़ गये। मित्र अविज्ञात ने राजा को बहुत ढूँढ़ा किन्तु राजा पुरन्जय नहीं मिला। अविज्ञात वापिस घर लौट आया।
इधर राजा पुरन्जय पानी की खोज में जंगल के भीतर बहुत दूर तक चला गया। तभी उसे एक सरोवर दिखाई दिया। वहीं एक ओर एक राजकुमारी अपनी सहेलियों के साथ जल-क्रीड़ा कर रही थीं। राजा ने जब उनकी हँसी-खुशी की आवाजें सुनी तो वह पानी पीकर उस ओर गया। किसी अपरिचित को पास आते देखकर राजकुमारी सहेलियों सहित सरोवर से बाहर आ गयी। राजा ने अपना परिचय दिया। राजा के द्वारा परिचय पूछने पर उसने बताया कि, “मुझे अपने बारे में केवल इतना ही मालूम है कि मेरा नाम रुपसी है। मैं यहीं कुछ दूर स्थित एक विशाल महल में रहती हूँ, अनेक सेवक और दास-दासियाँ मेरी सुरक्षा और सेवा करते हैं। सेनापति मेरे राज्य की रक्षा करता है। एक पाँच फन वाला सर्प महल के द्वार की सदैव रक्षा करता है। मेरा राज्य राजा से हीन है।”
“लेकिन यहाँ राजा क्यों नहीं है?” राजा के पूछने पर राजकुमारी रुपसी बोली, “राजन्! यहाँ मैं ही इस राज्य की मालकिन और शासक हूँ। जो व्यक्ति मुझसे शादी करेगा, वही इस राज्य को भोगेगा।”
“मैं भी अभी कुँवारा हूँ।” राजा की बात समझते राजकुमारी को देर न लगी। वह बोली, “ठीक है राजन्! मुझे आपका प्रस्ताव स्वीकार है।”
दोनों राजमहल आये। इस राजमहल में दस दरवाजे थे, जिन पर विभिन्न देवी-देवताओं के सुन्दर और आकर्षक चित्र बने हुए थे। वहाँ शुभ मुहूर्त में दोनों का विवाह-उत्सव हुआ। उस राज्य से अलग-अलग राज्यों, देशों और दिशाओं में जाने के लिए अलग-अलग द्वार, रथ, सेनापति और सेना थी। राजा पुरन्जय ने वहाँ का राजकार्य सँभाला और प्रसन्न होकर वहीं रहने लगा।
राजा पुरन्जय इधर रुपसी राजकुमारी के प्रेम-पाश में बँधकर अपने परिवार और राज्य को भूल चुका था। समय आने पर रुपसी ने एक पुत्र को जन्म दिया। पुरन्जय को यहाँ पर रहते हुए पाँच वर्ष बीत गए। उधर उसका मित्र अविज्ञात उसकी खोज में निरन्तर फिरता रहता। पुरन्जय के माता-पिता और उसकी रानी बहुत परेशान रहते। पुरन्जय के मित्र अविज्ञात ने उसके शासन की बागडोर अपने हाथ में ले रखी थी, अन्यथा दुश्मनों का खतरा था।
एक दिन राजा पुरन्जय शिकार खेलने के लिए अकेला रुपसी को बिना बताए चला गया। जंगल में उसने बहुत से निरपराध पशुओं का वध किया। यह देखकर जंगलवासी डर गये। शाम को जब वह रुपसी के महल की ओर लौट रहा था, तभी संयोगवश उसका मित्र अविज्ञात उसे दिखाई दिया। अविज्ञात ने उसे पुकारा। मित्र की आवाज सुनकर वह दौड़कर आया और उसके गले लग गया और बोला, “मित्र! तुम कहाँ चले गये थे। तुम्हें ढूँढ़ने की मैंने बहुत कोशिश की, किन्तु तुम नहीं मिले। मेरे माता-पिता और पत्नी कैसे हैं? राज्य कार्य कैसे चल रहा है? मुझे उन सबकी बहुत याद आती है।” यह कहकर अविज्ञात के पूछने पर पुरन्जय ने अपने मित्र को रुपसी से मिलने की पूरी बात बतायी।
“तुम्हें किसी के बारे में चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं हैं। सभी सकुशल हैं, किन्तु तुम्हारे बिना वे बहुत दु:खी रहते हैं। तुम अपनी गर्भवती पत्नी को छोड़कर कहाँ चले गये थे?”
“क्या!” पुरन्जय खुश होकर आश्चर्यचकित हुआ।
“हाँ! उसने एक बेटे को जन्म दिया है। अब वह पाँच वर्ष का हो गया है। चलो, अपने घर चलो! वही तुम्हारा सही ठिकाना है। यहाँ तो नगर की रक्षा के लिए कालसर्प और बलवान सेनापति तथा उनकी अठारह अक्षौहिणी सेना है। बड़े होने पर रुपसी अपने के साथ राज्य की देखभाल कर लेगी। तुम्हें अपने घर चलना चाहिए। यदि सुबह का भूला शाम को घर वापस आ जाये तो उसे भूला नहीं कहते। तुम किसी कारणवश द्वेषवश अपनी पत्नी से रुष्ट होकर जंगल में शिकार खेलने का बहाना बनाकर मेरे साथ आये थे और अपना मार्ग भटक गये थे, इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। तुम एक बार उनसे मिल लो, फिर जैसा तुम्हारा मन करे, करना। तुम्हारे माता-पिता बहुत बीमार हैं। वह तुम्हें देखना चाहते हैं।” अविज्ञात बोला।
“क्या! ठीक है मित्र! चलो, मुझे मेरे घर ले चलो।” यह कहकर पुरन्जय अपने मित्र के साथ अपने नगर लौट आया। उसके माता-पिता, पत्नी और पुत्र उसे देखकर बहुत प्रसन्न हुए, मानो किसी सर्प को खोयी हुई मणि मिल गई हो। उसका मित्र अविज्ञात सदा उसे धर्म, अध्यात्म और ज्ञान के लिए प्रेरित करता और ध्यान-योग साधना कराता ताकि पुरन्जय पिछली बातों को भूल जाये। जब कभी पुरन्जय उसे उदास दिखाई देता तो अविज्ञात कहता, “मित्र! आपका अपने इस पुत्र और पत्नी के प्रति भी तो कोई कर्तव्य है। फिर ये क्यों आपके आपके प्रेम से वंचित रहें।” धीरे-धीरे पुरन्जय अपनी पत्नी, पुत्र और माता-पिता तथा नगरवासियों के प्रेम-स्नेह में सब-कुछ भूलता गया और सुखपूर्वक प्रजा सहित सबका ध्यान रखने लगा।
संस्कार सन्देश –
कोई भी कार्य या झाँसे में पड़ने से पहले हमें उचित-अनुचित और सही-गलत पर जरूर विचार-विमर्श करना चाहिए।
हम कौन हैं, कहाँ से आये हैं? हमें घर-परिवार और गाँव-नगर को नहीं भूलना चाहिए।
कहानीकार-
जुगल किशोर त्रिपाठी
प्रा० वि० बम्हौरी (कम्पोजिट)
मऊरानीपुर, झाँसी (उ०प्र०)