
जय औघड़दानी प्रभु, जय महेश त्रिपुरारि।
शरण गहे की राखिये, खल कामादि निवारि।।
जटा-जुट सिर सोहहीं, अरु शशि, गंग बिशाल।
मुण्डमाल तन राजहीं, अंग कमर मृगछाल।।
एक हाथ डमरु लिएँ, एक हाथ त्रिशूल।
हिमगिरि सुता समेत प्रभु, सदा रहहुँ अनुकूल।।
वाम अंग भूधर सुता, नीलकण्ठ भगवान।
मृत्युञ्जय कामारि शिव, अज, विज्ञान, निधान।।
दशों दिशा में गूँजती, महिमा अपरम्पार।
नर-नारि सब मग्न हैं, तव भक्ती में सार।।
मन्दिर घण्टा बज रहे, झाँझ, मृदंग, मजीर।
सब शिव-शिव जनु जप रहे, गंग घाट के तीर।।
हैं त्रिनेत्रधारी प्रभु, महाकाल विकराल।
अपमृत्यु का हरण कर, दें निरोग तन हाल।।
हरते सब संकट प्रबल, रिपु को मार भगाय।
सब विकार मन के नसे, जो शिवशंकर ध्याय।।
राम रमापति रम रहे, जाके हिरदे आप।
दोनों में नहिं भेद कछु, हरें हृदय संताप।।
भोले मण्डारी प्रभु, उठे क्रोध कर नृत्य।
शान्त उसे करते प्रभु, न हो दु:खमय कृत्य।।
जीवन जनम सुधारिये, लीजे हरि-हर ध्याय।
हैं अभेद इनको जपे, भक्त जगराय।।।
अवगुण उर मेरे बसे, अगणित, अपरम्पार।
हरियो प्रभु विकार सब, करो कृपा हर पार।।
गणपति, गौरी, हरि सह, करहु कृपा की कोर।
तुम बिन मेरी को सुने, वास हिमालय ठौर।।
सत-चित अरु आनन्दमय, शिवशंकर बलवान।
रोग, शोक, चिन्ता नसें, कृपा करौ हर आन।।
मैं मति मन्द गँवार हूँ, सदा रहा अज्ञान।
भक्ति, जाप, पूजा करुँ, कैसे नहिं कछु ज्ञान।।
रचनाकार-
पं० जुगल किशोर त्रिपाठी (साहित्यकार)
बम्हौरी, मऊरानीपुर झाँसी (उ०प्र०)