
(स्वरचित काव्य रचना)
एक की पहचान न बाहर में,
न रूप, न ही व्यवहार में।
वो तो रहता सूक्ष्म सुरों में,
हर जीवों की उस धार में॥
न जाति, न भाषा, बंधन में,
न सीमाओं की परिभाषा में।
वो बस एक शक्ति की ज्वाला,
हर जीवन की अभिलाषा में॥
जिसे न देखा, न छू पाया,
पर हर क्षण वो पास लगा।
जहाँ मौन की सीमा छूटी,
वो वहीं स्वयं को रचता॥
जब मन के द्वार सभी बंद हों,
दिल के कोनों में दीप जलें।
साँसों की उस मधुर लय में,
जब “स्व” के स्वर सहज पले॥
तब दिखे वो रूप निराला,
न आदि, न उसका कोई अंत।
जो शून्य में भी पूर्ण समाया,
शांत, अनंत, महान तत्त्व॥
न मैं वहाँ हूँ, न तू कोई,
न भेद, न कोई पहचान।
“अहं” की परतें जब गिरतीं,
तब झलकता सत्य महान॥
वो ही साक्षी, प्रेरक शक्ति,
वो ही दृष्टा, चेतन ज्योति।
भीतर बैठा राम वही तो,
जीवन का सर्वोच्च मोती॥
“एक की पहचान” वही जाने,
जो दिल की आँखें खोल सके।
जो खुद से खुद को पार करे,
“मैं” से “हम” तक डोल सके॥
योगेश गहतोड़ी (ज्योतिषाचार्य)
नई दिल्ली – 110059