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अद्वैत का आरंभ

(स्वरचित काव्य)

(1)
न दिन था कोई, न रात थी, न धरती थी, न गगन,
न शब्द कहीं, न रूप था, न चेतन, न चित्त-धन।
न काल, दिशा, न गति कहीं, न आकार, न स्थान,
बस मौन खड़ा था ब्रह्म ही — स्वयं पूर्ण, आत्म-समान।

(2)
न जल कहीं, न अग्नि थी, न वायु, न तेज रेख,
न छाया थी, न ध्वनि कोई, न संदेह, न लेख।
न मंत्र, न वेद, न यज्ञ थे, न पूजा, न ध्यान-भरा,
बस शून्य में था जो शेष — वह ब्रह्म रूप ध्यान-भरा।

(3)
फिर उससे प्रकट हुआ नाद — ओंकार अनहद रूप,
जिससे रची गई सृष्टि — लीला-विस्तृत स्वभाव-स्वरूप।
अग्नि, वायु, जल, धरती, गगन — पंचतत्त्व प्रधान,
ध्यानस्थ ऋषियों ने पाया — वही ब्रह्म परम महान।

(4)
न द्वैत, न भेदभाव वहाँ, न राग, न यह-तेरा,
सबमें था केवल आत्मतत्त्व — अद्वैत भाव सवेरा।
जो घट-घट में एक समाया, न घटे, न कहीं बढ़े,
वही ब्रह्म जो सदा समान — न घटे कहीं, न बढ़े।

(5)
न वह किसी में समाया था, न उससे कुछ भिन्न,
न दृश्य, न द्रष्टा वहाँ, न बंधन, न कोई सन्न।
ना द्वैत, न भिन्नता कहीं, न प्रत्यक्ष प्रमाण,
केवल अखंड, निराकार — ब्रह्मज्ञान का पूर्ण गान।

(6)
न आदि, न अंत उसका, न हेतु, न कोई प्रमाण,
स्वयं प्रकाशित सत्य जो — नित निर्मल ब्रह्म-ज्ञान।
न नाम, न रूप, न गति वहाँ, न विकल्प, न तर्क विचार,
बस मौन में फैला था ब्रह्म — अद्वैत स्वरूप विस्तार।

योगेश गहतोड़ी (ज्योतिषाचार्य)
नई दिल्ली – 110059

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