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लघुकथा: रागिनी


(स्वरचित)

उत्तर भारत के एक पहाड़ी गाँव में स्थित एक छोटे से स्कूल में आठवीं की छात्रा “रागिनी” पढ़ाई में होशियार और स्वभाव से अत्यंत मधुर थी। उसे गाने का बहुत शौक था। रोज़ स्कूल के बाद वह किसी एकांत कोने में बैठ जाती और सुरों की साधना में लीन हो जाती। उसकी आवाज़ में एक ऐसा भाव था जो सीधे मन को छू जाता। धीरे-धीरे कुछ बच्चे उसके पास आकर बैठने लगे और उसकी तान में खो जाते।

रागिनी के घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। पिता खेतों में मजदूरी करते थे और माँ सिलाई कर परिवार चलाती थीं। अभावों के बीच पला यह परिवार सीमित संसाधनों में भी उम्मीद का दीप जलाए हुए था। रागिनी के भी अपने स्वप्न थे — वह एक दिन प्रसिद्ध गायिका बनना चाहती थी।

जब स्कूल में वार्षिक संगीत प्रतियोगिता की घोषणा हुई, तो रागिनी का हृदय हर्ष से भर उठा, लेकिन थोड़ी ही देर में उसकी आँखों की चमक फीकी पड़ गई। उसके पास न ढंग के कपड़े थे, न कोई वाद्य यंत्र। वह चुपचाप दीवार के पास बैठ गई और धीमे स्वर में एक गीत गुनगुनाने लगी —
“पायल की झंकार, बन गई मेरी पुकार…”

उसी समय स्कूल के संगीत शिक्षक वहाँ से गुज़र रहे थे।
रागिनी की मीठी आवाज़ सुनकर वे रुक गए। हैरानी से बोले, “अरे! ये स्वर कहाँ से आ रहे हैं… कौन है ये बच्ची, जो राग को ऐसे सँजो रही है?” जब बच्चों ने बताया कि यह “रागिनी” है, मास्टर जी यह वही लड़की है, जिस पर अब तक किसी ने खास ध्यान नहीं दिया। यह सुनकर मास्टर जी बहुत हैरान हुए।

मास्टर जी ने रागिनी को स्नेहपूर्वक पास बुलाया और कहा — “तुम्हारी आवाज़ में आत्मा है बेटा, अब तुम्हें रुकना नहीं चाहिए।” उन्होंने उसके लिए हारमोनियम और नए वस्त्र खरीदे और उसे अनूप जलोटा का भजन “मन मंदिर में राम बिराजें…” को राग यमन में सिखाया।

रागिनी ने पूरे मन से अभ्यास किया। जब उसने मास्टर जी को गाकर सुनाया, तो वे भावुक हो उठे और बोले —
“अब तू मंच पर सबसे सुंदर सुर छेड़ेगी, रागिनी!”

प्रतियोगिता का दिन आया। रागिनी थोड़ी संकोच में थी, पर जैसे ही उसने गाना शुरू किया, उसकी तान पूरे सभागार में गूंज उठी। लोग निःशब्द होकर सुनते रहे। गीत समाप्त होते ही तालियों की गूंज उठी। निर्णायकों ने उसे प्रथम स्थान पर घोषित किया।

प्रधानाचार्य ने मंच से कहा —
“रागिनी जैसे विद्यार्थी विद्यालय की सच्ची प्रेरणा हैं।”

ज़िले के संगीत विभाग ने उसे छात्रवृत्ति भी प्रदान की। मंच से उतरते हुए मास्टर जी बोले —
“यह रागिनी नहीं, राग की रानी है — जिसने अभाव में भी स्वर-साधना को नहीं छोड़ा।”

रागिनी की आँखों में आँसू थे — मगर वह दुःख के नहीं, संतोष और आत्मगौरव के आँसू थे। यह केवल एक प्रतियोगिता नहीं थी, बल्कि उसके स्वप्न की वह पहली सीढ़ी थी, जिसे उसने आत्मविश्वास, साधना और एक सच्चे गुरु के विश्वास के सहारे पार किया था।

तालियों की वह गूंज उसके भीतर एक आशीर्वाद-सी उतर रही थी —
“चल रागिनी… अब तुझे थमना नहीं है… सुरों की दुनिया तेरा इंतज़ार कर रही है।”

योगेश गहतोड़ी

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