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“मनुष्य और भगवान का संबंध”

(वेदों और उपनिषदों की दृष्टि में)

यह अत्यंत गूढ़, जिज्ञासापूर्ण और धर्म-दर्शन के मूल में स्थित प्रश्न है। इसका उत्तर वेद, उपनिषद, गीता और पुराणों के माध्यम से पूर्ण रूप से इस प्रकार समझा जा सकता है।

1. भगवान हैं या नहीं?
हाँ, भगवान हैं — और वे सर्वशक्तिमान हैं।

ऋग्वेद कहता है:
*एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति। * — ऋग्वेद 1.164.46
भावार्थ: सत्य (परमात्मा) एक ही है, लेकिन ज्ञानी उसे अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। इसका आशय यह है कि चाहे हम उसे शिव कहें, विष्णु, राम, कृष्ण या ब्रह्म — वह परब्रह्म एक ही है।

2. भगवान कहाँ हैं?
भगवान हर जगह हैं – भीतर भी, बाहर भी।

उपनिषद कहता है:
“ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।” — ईशावास्य उपनिषद् 1.1
भावार्थ: यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड ईश्वर से व्याप्त है।

भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं:
*”मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।” * — गीता 9.4
भावार्थ: यह सम्पूर्ण जगत मेरी अव्यक्त मूर्ति से व्याप्त है। इसका अर्थ यह है कि ईश्वर किसी एक स्थान या मूर्ति तक सीमित नहीं हैं, वह जल में, थल में, वायु में, आकाश में और हमारे अंदर भी हैं।

3. क्या भगवान मनुष्य के अंदर हैं?
हाँ, भगवान हर जीव के अंदर आत्मा के रूप में विद्यमान हैं।

“अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।” — गीता 10.20
भावार्थ: हे अर्जुन! मैं सब प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ।

श्वेताश्वतर उपनिषद में भी लिखा है:
“एको देवः सर्वभूतेषु गूढः, सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।” — श्वेताश्वतर उपनिषद 6.11
भावार्थ: एक ही परमेश्वर सभी जीवों में अंतरात्मा के रूप में छिपा हुआ है। हम जब आत्मा के रूप में अपने भीतर झांकते हैं, तो परमात्मा का अनुभव कर सकते हैं। इसलिए ध्यान, योग और भक्ति को आत्मा-परमात्मा के मिलन का मार्ग कहा गया है।

4. क्या मनुष्य भगवान का अंश है?
मनुष्य भगवान का अंश है, उसी की चेतना का एक छोटा हिस्सा।

“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।” — गीता 15.7
भावार्थ: यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है। जैसे सूर्य से एक किरण निकलती है, उसी तरह परमात्मा से हर जीवात्मा का जन्म होता है। हम गुणात्मक रूप से परमात्मा के समान हैं, परंतु मात्रात्मक रूप से नहीं। यानी हमारे भीतर उसकी झलक है, पर हम उसका पूर्ण स्वरूप नहीं हैं।

5. क्या मनुष्य ही भगवान है?
यहाँ शंकराचार्य की अद्वैत परंपरा कहती है:
“अहं ब्रह्मास्मि।” — बृहदारण्यक उपनिषद् 1.4.10
भावार्थ: मैं ब्रह्म हूँ। इसका अर्थ यह नहीं कि “मैं ही भगवान हूँ और बाकी सब नहीं” , बल्कि यह कि जब व्यक्ति अपने अहंकार से मुक्त होकर आत्म-तत्व को पहचानता है, तब उसे परमात्मा की अनुभूति होती है। जैसे: बूँद जब तक अलग है, वह “बूँद” है, लेकिन समुद्र में मिलते ही वही समुद्र हो जाती है। उसी प्रकार, आत्मा जब तक देहाभिमान में है, वह सीमित है। परन्तु जब वह आत्मसाक्षात्कार कर लेती है, तो वह स्वयं को ब्रह्मरूप जानती है।

6. उपनिषदों में ईश्वर और आत्मा की एकता
“यः पश्यति स पश्यति।” — कठ उपनिषद् 2.1.11
भावार्थ: जो आत्मा और परमात्मा में एकत्व देखता है, वही यथार्थ में देखता है।

*”स ह वा एष आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो।” * — छान्दोग्य उपनिषद् 6.8.7
भावार्थ: हे श्वेतकेतु! तू वही आत्मा है — “तत्त्वमसि” — तू वही है। यहाँ शास्त्र कहता है कि भगवान और जीव आत्मा एक ही चेतन तत्त्व के दो पहलू हैं।

7. निष्कर्ष
क्या भगवान हैं?
हाँ, वेद-शास्त्रों के अनुसार भगवान हैं।

भगवान कहाँ हैं?
सर्वत्र हैं — बाहर और भीतर, कण-कण में।

क्या भगवान हमारे अंदर हैं?
हाँ, आत्मा के रूप में।

क्या हम भगवान का अंश हैं?
हाँ, हम उसी ब्रह्म के अंश हैं।

क्या मनुष्य भगवान है?
नहीं, मनुष्य भगवान नहीं है, पर उसमें उसकी चेतना है। आत्म-साक्षात्कार से वह ब्रह्मरूप बन सकता है।

*ना दूर कहीं वो रहता, ना मंदिर में सिमटा है, *
*हर साँस में उसकी गूँज है, हर दिल में बसा है। *
*हम अंश हैं उसी ज्योति के, वो परमज्योति प्रभु है, *
जो खुद को जाने, वही कहे – “अहं ब्रह्मास्मि” सच है।

योगेश गहतोड़ी (ज्योतिषाचार्य)
नई दिल्ली – 110059

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