
इस दृश्यमान जगत में प्रत्येक दृश्य और अदृश्य वस्तु, स्थिति और परिस्थिति तटस्थ है। पदार्थ परस्पर संयुक्त होते हुए भी अपनी स्वतंत्र सत्ता रखते हैं। कभी-कभी उनमें कोई भी तारतम्य नहीं दिखाई देता फिर भी वह असंपृक्त होते हैं। जल ,थल और नभ तक एक ही सत्ता विभिन्न रूपों में विभक्त होती हुई दिखाई देती है। वही सतयुग के मर्यादा पुरुषोत्तम राम और सीता हैं तो वही द्वापर के श्रीकृष्ण और राधा हैं। वही राम जी की प्रजा है, वही द्वापर युग के ग्वाल बाल वृंद। वही आज के भगवान और भक्त हैं। यह ब्रह्मांड ही हर मानव के जन्म का हेतु और अहेतु सभी कुछ है।इस तरह हर स्वतन्त्र और परतंत्र रुप में एक ही परम शक्तिशाली सत्ता का अस्तित्व है। यह शक्ति ही ब्रह्मांड की सर्जना करती है। यह चराचर जगत ही ब्रह्मांड है।
यहां एक ही माया विभिन्न रूपों में विचरण करती है। कभी वह हमें अपने मूल उद्देश्य के प्रति एकाग्र करती है। कहीं पर वह अपने परम लक्ष्य से भटका देती है। कभी वह असीमित आनंद की सृष्टि करती है तो कभी वह अपार दुख से हृदय को विदीर्ण भी कर देती है। यही इस ब्रह्मांड का उद्गम बिंदु है जिसमें कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता है।
स्वरचित
संध्या दीक्षित