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वो अनजानी सी लड़की, अनजान ही रह गई,
बनी नुमाइश की सी, सामान ही रह गई।।
परोसा उसे लहजे से,बता आज़ादी की बात,
पिंजरे मे जैसे बुलबुल, और कैद ही रह गई।।
देखना था,उसे जैसे,लुभाया समाज ने वैसे,
वह कीमती सामान, पैसे की ,न ,रह गई।।
बताकर शर्त सुहानी, छला गया उसे ऐसे,
बिकने का सामान, जैसे वह रह गई।।
दृष्टि देेह बदन पर,और नियत वासना की,
जो थी अराध्य पूज्या सी,वो क्या ही रह गई।।
ये कीमत मंहगी अस्मत ,जिसकी जानती न कीमत,
कैसी ही आज़ादी, जो कोड़ी न रह गई।।
संदीप
शर्मा सरल।।
देहरादून उत्तराखंड