
श्लोक:-
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥”
— महोपनिषद्, अध्याय 6, श्लोक 71–73
अर्थात, यह मेरा है और वह पराया है, इस प्रकार का विचार केवल संकीर्ण बुद्धि वाले लोगों की प्रवृत्ति है। परंतु उदार विचारधारा और विशाल चरित्र वाले लोगों के लिए सम्पूर्ण पृथ्वी ही एक परिवार के समान है।
यह श्लोक “अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥” महोपनिषद् के अध्याय 6 से लिया गया है, जो उपनिषदों की संन्यास शाखा का एक गूढ़ एवं महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। यह श्लोक भारतीय जीवन-दर्शन की उस सार्वभौमिक भावना को प्रकट करता है, जो समस्त प्राणियों और समग्र विश्व को एक ही परिवार के रूप में देखती है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ केवल एक वैचारिक प्रस्ताव नहीं है, अपितु एक ऐसी जीवन-पद्धति है जो मनुष्य को उसके भीतर के उच्चतम सत्य से जोड़ती है और समत्व, सह-अस्तित्व तथा समर्पण की भावना को जाग्रत करती है।
शब्दार्थ
अयम् — यह
निजः — अपना
परः — पराया / अन्य
वेति — ऐसा विचार करता है
गणना — गिनती, विचार
लघुचेतसाम् — संकीर्ण बुद्धि वाले लोगों की
उदारचरितानाम् — विशाल हृदय और उच्च चरित्र वाले लोगों की
तु — परंतु
वसुधैव कुटुम्बकम् — सम्पूर्ण पृथ्वी ही परिवार है
यह श्लोक इस बात का प्रतीक है कि भारतीय संस्कृति केवल किसी व्यक्ति, समुदाय या जाति विशेष की नहीं, बल्कि समग्र मानवता की कल्याणकारी चेतना को धारण करने वाली संस्कृति है। इसमें “स्व” और “पर” का भेद मिट जाता है, और केवल “हम” की व्यापकता रह जाती है।
यह श्लोक वेद शास्त्रों के वैदिक जीवन-दर्शन की उस परंपरा से जुड़ा हुआ है जहाँ समस्त सृष्टि को एकता के सूत्र में देखा गया है।
ऋग्वेद में कहा गया है —
“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।”
अर्थात् सभी सुखी हों, सभी रोगमुक्त रहें। यह विश्वकल्याण की भावना को उजागर करता है।
यजुर्वेद की एक ऋचा कहती है —
“मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।” अर्थात सभी जीवों को मैत्रीपूर्ण दृष्टि से देखो।
अथर्ववेद (19.15.6) में उल्लेख है —
यत्र भ्रातृव्यमेव च।”
जहाँ सब लोग एक-दूसरे को भाई के रूप में देखते हैं, वहीं सच्चा शांति-संवाद संभव है।
ऋग्वेद (10.191.2) में कहा गया —
“संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।”
अर्थ: सभी मिलकर चलें, एक साथ विचार करें और उनके मन एक हो जाएँ। यह भी विश्वबंधुत्व की भावना को पुष्ट करता है।
इसी प्रकार, श्रीमद्भगवद्गीता (6.29) में श्रीकृष्ण कहते हैं —
“सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥”
अर्थ: योगयुक्त आत्मा वाला व्यक्ति समदृष्टि रखता है और सब प्राणियों में आत्मा को तथा आत्मा में सब प्राणियों को देखता है।
इन सभी वेदों और ग्रंथों से यह स्पष्ट होता है कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ भारतीय सभ्यता की आत्मा में निहित वह आदर्श है जो संपूर्ण जगत को आत्मीयता से बाँधता है।
यह श्लोक केवल दार्शनिक विचार नहीं है, बल्कि एक सामाजिक और नैतिक जीवन की दिशा भी निर्धारित करता है। जब मानव “मेरा-तेरा” की संकीर्णता से ऊपर उठकर “हम सब एक हैं” की भावना में जीने लगता है, तभी उसका जीवन सार्थक होता है। वह समाज, जिसमें एक-दूसरे के सुख-दुख को साझा किया जाता है, वही सच्चे अर्थों में मानवतावादी समाज होता है। यह श्लोक करुणा, सहानुभूति, परोपकार और सौहार्द की नींव रखता है।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ एक ऐसा भाव है जो जाति, धर्म, भाषा, रंग और राष्ट्र की सीमाओं को लांघकर हमें समभाव की ओर ले जाता है। यह विचार हमें सिखाता है कि हम सब एक ही परम सत्ता की संतान हैं। यह वैश्विक भाईचारे, धार्मिक सहिष्णुता, अन्तरराष्ट्रीय सहयोग और शांति का मार्ग प्रशस्त करता है। जब हम दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझने लगते हैं, तभी यह विचार सजीव हो उठता है।
हालाँकि ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का विचार अत्यंत सुंदर और आदर्श है, परंतु इसके व्यावहारिक पक्ष में कुछ चुनौतियाँ भी हैं। आज की राजनीति, सीमाओं, आर्थिक असमानताओं और स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों के कारण इस भाव को लागू करना कठिन होता जा रहा है। कभी-कभी अत्यधिक उदारता का दुरुपयोग भी किया जाता है, जिससे सच्चे उदार लोगों को हानि पहुँचती है। इसलिए इस विचार को व्यवहार में लाते समय विवेक, संतुलन और यथार्थ दृष्टि अनिवार्य है।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ कोई केवल श्लोक नहीं, बल्कि एक सार्वभौमिक दृष्टिकोण है, एक जीवन-दर्शन है, जो मनुष्य को उसके आत्मिक स्वरूप से जोड़ता है। यह भारतीय संस्कृति की आत्मा है, जो आत्मीयता, सह-अस्तित्व और शांति की प्रेरणा देती है। यही भाव रामायण में भी झलकता है, जब श्रीराम कहते हैं —
“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।”
मातृभूमि स्वर्ग से भी महान है, परंतु वह तभी महान है जब उसमें समावेश और उदारता का भाव हो।
इस प्रकार, यह श्लोक न केवल भारतवर्ष के लिए, अपितु संपूर्ण विश्व के लिए एक अमूल्य प्रेरणा है।
“वसुधैव कुटुम्बकम्” का सार यही है कि सम्पूर्ण वसुधा ही मेरा परिवार है।यही दिव्य चेतना, यही समदर्शिता, यही भारतीयता की आत्मा है।
योगेश गहतोड़ी