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संरक्षणचतुष्टय

(आत्मरक्षण, कुलरक्षण, समाजरक्षण, समिष्टिरक्षण)

संरक्षण का प्रथम चरण, आत्मबोध का मूल।
जो निज को पहचाने, वह सहे सदा अमूल॥
विवेक-ज्योति जगे जब, तन-मन पावन होय।
जो निज आत्मा जान ले, अमरत्व उसे संजोय॥

जब अंतर में दीप जले, तब तम होवे दूर।
चेतन मन जब जागे तब, सत्य भरे भरपूर॥
आत्मरक्षण दृढ़ बने, तब धर्म बने आधार।
अंतर की उस ज्योति से, हो जाए उद्धार॥

संरक्षण का द्वितीय पथ, कुलधर्म का प्रकाश।
जिससे संस्कृति बँध सके, जीवन पाए श्वास॥
कुल केवल वंश नहीं, वह स्मृति की धार।
संस्कारों की माला है, जो देती आधार॥

कुल-चेतन में रमे हुए, ऋषि-मुनियों के ध्यान।
तप, मर्यादा, प्रेम से, जागे शुभ विज्ञान॥
जिस कुल में धर्मव्रत हो, करुणा-शील विचार।
वही बने इतिहास में, तेजस्वी आधार॥

संरक्षण का तृतीय पथ, सामाजिक निर्माण।
जहाँ समता, न्याय से, सेवा पाए मान॥
समाज नहीं है भीड़ वह, चेतन वृक्ष समान।
हर पत्ता, हर शाख में, जुड़ी रहे पहचान॥

दया, करुणा, प्रेम से, बँधते नयन-सुहार।
जहाँ न कोई पर रहे, सबमें दिखे परिवार॥
समाजरक्षण वह कला है, जो जोड़े परिवार।
सबको जिसमें मान मिले, कर्तव्य बने सार॥

संरक्षण का चतुर्थ पद, समष्टि का आभास।
प्रकृति नारी रूप है, उसका रक्षण श्वास॥
यह धरती, यह सिन्धु, वन जीवन के प्रमाण।
पंचभूत का है तन यह, प्राणों का सम्मान॥

संसाधन न भोग हैं, वे हैं सृजन की शक्ति।
वृक्ष-वायु-जल-भूमि सब, चेतन दिव्य भक्ति॥
जब यह बोध जगे हृदय, रक्षण हो संकल्प।
तभी बचे यह विश्वधरा, यही समय का कल्प॥

साहित्य दीप सम बने, जो चेतन मन खोल।
संरक्षण की भावना, जो जीवन को दे मोल॥
स्वरक्षण से जागे विवेक, संयम साथ जुड़ाय।
ज्ञानप्रवाह सदा बहे, साधक पथ अपनाय॥

साहित्य जब चेतना बने, संरक्षण का गान।
आत्मरक्षण दे विवेक, कुलरक्षण दे मान॥
समाजरक्षण बुन सके, समष्टिरक्षण प्राण।
जब सब भाव जुड़ें सही, जीवन हो महान॥

कुलरक्षण से पुष्ट हो, जीवन में अभिलाषा।
समाजरक्षण हो तभी, बहे सहज प्रशंसा॥
समष्टिरक्षण मन्त्र हो, प्रकृति-मातृ का गान।
संरक्षणचतुष्टय से, जीवन हो कल्याण॥

संरक्षणचतुष्टय व्रत, आत्मरक्षण का आधार।
कुलरक्षण से संस्कृति, समाजरक्षण से प्यार॥
समष्टिरक्षण ज्ञान दे, दे प्रकृति सम्मान।
साहित्य चेतना बने, युग की एक पहचान॥

योगेश गहतोड़ी

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