
आग उगलता सूरज देखो,
दशों दिशायें हैं जलतीं।
जीवन के सब रंग खो गये,
उम्र हुई जैसे ढ़लती।।
पंखे में बैठा नहीं जाता,
कूलर, ऐ० सी० फेल हुए।
किचन आग की भट्टी लगती,
खाली, मैले सभी कुए।।
आँखों में है जलन, जलन-सी,
सदा वदन में रहती है।
जीवन का सौन्दर्य खो गया,
धरा मौन हो सहती है।।
बरगद, पीपल, जामुन, शीशम,
पाकर, आम, पलाश सभी।
विवश, नहीं हर पायें तपन ये,
दें समीर शीतल नित ही।।
सभी विवश ऐसे हैं जैसे,
पकड़ व्याघ्र की में कोई मोर।
कितना ही प्रयास तुम करलो,
नही छूट पाओ, कर शोर।।
ऐसे ही सब विवश सूर्य ढ़िंग,
नहीं प्रकृति संग जलता जोर।
भौतिक संसाधन का दोहन,
हने पेड़-पौधे हो भोर।।
फेंक रहा है गर्मी सूरज,
किरणें सीधे ताप बढ़ा।
होते वृक्ष नमी आ जाती,
अब तो मानो काल खड़ा।।
छियालिस के ऊपर है पारा,
झाँसी और आगरा का।
चालीस है सारी जगहों का,
देखो सभी माजरा क्या?
सहमे-सहमे से पौधे हैं,
बड़े विटप भी मौन खड़े।
नहीं प्रतिक्रिया कोई करते,
मनहुँ मूर्ति से धरा गढ़े।।
हवा समेट लयी हो जैसे,
उनने अपने अन्दर ही।
अब तो जीव और भी व्याकुल,
दम घुटता घर के भीतर ही।।
बाहर चैन नहीं मिलता है,
हाय..हाय सब बोल रहे।
ठण्डक बिना जले सारा तन,
इधर-उधर सब डोल रहे।।
जलन हो रही, उल्टी होती,
वही बचे सादा व्यवहार।
सात्विक भोजन जिन अपनाया,
रहे स्वस्थ वो हिम्मतवार।।
रचना-
जुगल किशोर त्रिपाठी (साहित्यकार)
बम्हौरी, मऊरानीपुर, झाँसी