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निष्क्रमण संस्कार एवं सूर्यावलोकन

सामान्य परिचय एवं संस्कार की संक्षिप्त प्रक्रिया—

‘चतुर्थे मासि निष्क्रमाणिका सूर्यमुदीक्षयति तच्क्षुरिति’
पा०गृ०सू०१।१।७५-६
इन सूत्रों में यह बताया गया है कि, निष्क्रमण-संस्कार बालक के जन्म के बाद चौथे मास में करना चाहिए, किंतु व्यवहार की सुविधा के लिए शिष्टजन प्रायः नामकरण-संस्कार के अनन्तर ही अपकृष्ट करके इस कर्म को भी संपन्न कर लेते हैं—
इस संस्कार भी मुख्य रूप से शिशु को सूतिका ग्रह से बाहर लाकर सूर्य दर्शन कराया जाता है ।
‘अथ निष्क्रमणं नाम गृहात्प्रथमनिर्गमः’{बृहस्पति}
इसका तात्पर्य है कि निष्क्रमण के पूर्व शिशुको घर के अंदर ही रखना चाहिए । इसमें कारण यह है कि, अभी शिशु की आंखें कोमलता बस कच्ची रहती हैं यदि शिशु को शीघ्र ही सूर्य की तीव्र प्रकाश में लाया जाएगा तो उनकी आंखों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा, भविष्य में उसकी आंखों की शक्ति या तो मंद रहेगी या उसका शीघ्र ही ह्रास होगा । इस कारण भारतीय नारियां बच्चे को शीशा भी नहीं देखने देती; क्योंकि शीशे की चमक भी कच्ची आंखों को चौंधिया देते हैं । सूतिकागृह में तेज प्रकाश भी इसी कारण नही रखी जाती । धीरे-धीरे शिशु में शक्ति संचय हो जाने से क्रम-क्रमसे घर के दीपक की ज्योति देखने में अभ्यस्त होकर तब उसकी आंखें बाह्य प्रकाश में गमन के योग्य होती हैं । यद्यपि बिना संस्कार के भी यह लाभ उसे प्राप्त होना संभव है; किंतु मंत्रों के साथ होने पर, इसका प्रभाव अमोघ और दीर्घकालिक होता है तथा शास्त्र की मर्यादा का रक्षण भी होता है ।
अतः संस्कार विहित विधि के अनुसार ही करना चाहिए ।
इस कर्म में दिग्देवताओं, दिशाओं, चंद्र, सूर्य, वासुदेव तथा गगन {आकाश} इन देवताओं का किसी जलपूर्ण पात्र में आवाहन करके उनके नाम-मंत्रों से पूजन होता है, और पूजन के अनन्तर उनकी प्रार्थना की जाती है । उसके बाद शंखघंटानादपूर्वक शांति पाठ करते हुए बालक को लेकर घर से बाहर आँगन में जहां सूर्य के सूर्य दर्शन हो सके ऐसे स्थान में आकर, किसी ताम्रपत्र में सूर्य की स्थापना-प्रतिष्ठा कर उनका पूजन करना चाहिए और सूर्यार्घ्य प्रदान कर मंत्र का पाठ करते हुए बालक को सूर्य का दर्शन करना चाहिए और ब्राह्मणों को दक्षिणा-भोजन आदि कराकर कर्म संपन्न करना चाहिए ।।

!! निष्क्रमण संस्कार के उपांग कर्म !!
।। भूमि उपसेवन कर्म ।।
पास्कर गृह्यसूत्र के अनुसार— बालक के जन्मके पांचवें मास में भूमि-उपसेवन कर्म होता है । जिसमें भूमि पूजन करके पहली बार बालक को भूमि का स्पर्श कराया जाता है, इसे करनेसे पृथ्वी माता जीवन पर्यंत उसकी रक्षा करती हैं ।।
!! दोलारोहण !!
शिशु के लिए नया दोला, {झूला, हिंडोला} मे प्रथम बार माता की गोद से उसे दोलापर बैठाने का मांगलिक कर्म दोलारोहण कह जाता है । नामकरण संस्कार के दिन सोलहवें दिन, बाइसवें दिन, अथवा किसी शुभ दिन शुभ मुहूर्त में, कुलदेवता का पूजन करके हल्दी कुमकुम आदि से सुसज्जित डोले में माता, सौभाग्यस्त्रियां योगशायी भगवान् विष्णुका स्मरण करते हुए मंगलगीत वाद्योंकी ध्वनि के साथ भली प्रकारसे अलंकृत किये शिशुको नवीन वस्त्रसे आक्षादित पर्यंक अर्थात् {झूलेपर} पूर्वकी ओर सिर करके सुलाती हैं और मांगलिक कार्यों को संपन्न करती हैं ।।
गोदुग्धपान—
अभी तक बालक माता के दूध पर आश्रित था, अब उसे विशेष दूध की आवश्यकता होने लगती है । अतः जन्म के इकतीसवें दिन अथवा किसी शुभ दिन शुभ मुहूर्त में कुल देवता का पूजन करने के अनन्तर बालक की माता अथवा कोई सौभाग्यशालिनी स्त्री शंखमें गोदुग्ध भरकर धीरे-धीरे बच्चे को प्रथम बार पान कराती है ।आयुर्वेद शास्त्रमें गोदुग्धके गुणों तथा उसके उपयोगिता को बताते हुए कहा गया है कि गायका दूध- स्वादिष्ट, शीतल, मृदु, बहल अर्थात् गाढ़ा श्लक्ष्ण, पिच्छिल, गुरु, मंद और प्रसन्न इन दश गुणोंसे युक्त रहता है । यह जीवनी शक्ति प्रदान करनेवाले द्रव्यों में सबसे श्रेष्ठ रसायन है—-
माता के दूध के विषय में बताया गया है कि यह शरीर में जीवनी शक्तिको देने वाला होता है ।।
साभार– गीताप्रेस गोरखपुर
लेखन एवं प्रेषण—
पं. बलराम शरण शुक्ल
नवोदय नगर, हरिद्वार

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