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सत्य-सनातन (भाग- 1)

वैदिक जो सिद्धान्त सत्य के,
दर्शन जो अद्वैत अहा।
सत्य-सनातन ऋषि-मुनियों का,
कर्म, उसे नव ढ़ंग से कहा।।

है पहचान हमारी इससे,
चारों जो पुरुषार्थ महा।
कैसे पाकर नव-जीवन को,
करें सुखद, नव अमिय बहा।।

सतयुगीन परिवेश करें,
हम स्थापित ये बारम्बार।
इसकी कडी टूटने पावे,
नहीं कभी, प्रण लें हर बार।।

ये अभियान हमारा नित ही,
यों ही उदधि-सा लहराये।
‘हरि ओ३म् तत्सत्’ का नारा,
घर-घर जाग्रति फैलाये।।

सद्विचार, सद्भाव, सात्विक,
भोजन, जीवन में छाये।
वेद-पुराण, उपनिषद, गीता,
रामायण हर कोई गाये।।

पंच महाप्राणों से सबका,
जीवन ये उद्भासित हो।
रवि मण्डल की प्रखर राशि-सा,
ज्ञान लहें, ये शासित हो।।

साहित्यिक सचेतना देती,
नवल सप्त किरणों-सा व्यूह।
इसमें, आकर मानव खिलता है,
ज्यों, खिलते जल कमल समूह।।

धन्य सनातन धर्म धन्य है,
धन्य धरा भारत माता।
जिस पर ये गौरव पाया है,
जिसके गुण जन-जन गाता।।

जीवन जनम सफल है उसका,
जो सचेतना में रमता।
सर्व ज्ञान रुपी धारा में,
नहा कलुष अघ को पाता।।

यही हमारी समझ, कामना,
ये, फैले सारी धरती तल पर।
लहराए ये इक दिन नभ में,
दशों-दिशाओं व कल पर।।

राम-कृष्ण की पावन धरती,
ऋषि-मुनियों की थाती है।
हमको इसे सुरक्षित रखना।
ऐसी, सुरभित मेरी माटी है।।

फिर जब शुद्ध-बुद्ध मन होता,
शान्ति हृदय में छा जाती।
आत्म-चेतना जागृत होती,
अमिय धार अविरल आती।।

रचना-
पं० जुगल किशोर त्रिपाठी (साहित्यकार)
बम्हौरी, मऊरानीपुर, झाँसी (उ०प्र०)

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