
(योग में स्थित परम योगी- योगस्थेश्वर भोले शंकर)
श्रावण की रिमझिम बूंदों में, गूंजे शिव का नाम।
हर-हर बोले नभ दिशा-दिशा, पावन हो हर धाम॥
त्रिपुण्ड भाल, जटा सिर शोभित, गंगाधर रूप।
योगमग्न योगेश्वर शिव, शांति सुधा अनूप॥
त्रिनेत्रधारी योगी शंभू, तेज भरे ललाट।
जटा-जूट से गंगा बहती, कर दे पावन घाट॥
नीलकण्ठ विष पी करके, बने अमृत समान।
स्वयं में लीन जो योगी, वही ब्रह्म का ज्ञान॥
चरणों में जल चढ़ाते भक्त, लगती भक्ति कतार।
बिल्वपत्र चढ़ते भावों से, होता शिव श्रृंगार॥
श्रावण पवन सुगंधित बहे, गाएँ शिव गुणगान।
कण-कण में त्रिनेत्र दमके, जागे सत्य विधान॥
योगस्थ भस्म रमाए तन, ध्यानमग्न गम्भीर।
सप्तऋषि भी शीश झुकाएँ, शांति जपे समीर॥
न पक्ष-पात न भेदभाव, सत्य सदा प्रमाण।
जीव-जीव में रमे वही, ब्रह्मरूप समान॥
अलिप्त, विलीन, साक्षी भाव, चेतन का प्रतिपात।
शून्य मध्य में ज्योति जगे, आत्मा करे विलास॥
गहन तपस्वी शांति मूर्ति, जिनकी करुणा आभा।
संहारक-सृजनकर्ता वह, त्रिकालदर्शी सत्ता॥
श्रावण की जलधार बहे, पावन करे सुवास।
शिव-जप मन में तेज भरै, होय विवेक प्रकाश॥
रुद्राक्ष धारण कर नाचे, प्रेम भरा अनुराग।
शिव ही ज्ञान, शिव ही प्राण, सत्यस्वरूप बिराग॥
ध्यानस्थ योगी जो बने, शिव हों पास प्रतीत,
एकत्व मिले ब्रह्म-रूप — न हो फिर कोई रीत॥
श्रावण जो शिवमय बना दे, वह पावे कैलास,
तन-मन शुद्ध हो प्रेममय, खुले सहज प्रकाश॥
कण-कण में शिव ही शिव बसे, भाव-भाव में नाथ।
भक्ति, योग, वैराग्य सहित, गूँजे शिव के साथ॥
शिव ही पंथ, दिशा शिवमयी, शिव मंत्रों का द्वार।
भोले चरण पकड़ जो बैठा, मिटे समस्त विकार॥
श्रावन सावन झरें जब, अंतर दीप जले।
“बोल बम” जयकारों से, पापों के बंध ढले॥
शिव-पद धरती छू सकें, पावन गति मिल जाए।
मानवता के पुष्प खिले, संतत्व सुध-बुध लाए॥
हे योगस्थेश्वर शंभो, कर दो कृपा निदान।
श्रावण में गूँजे धरा पर, तव चरणों का गान॥
ब्रह्मातीत जो योगरूप, समाधिस्थ निधान।
मुझमें जागे वही प्रकाश, हो शिवमय पहचान॥
हर-हर महादेव
योगेश गहतोड़ी