
एक गाँव में अजय नाम का व्यक्ति अपनी पत्नी कविता और 9 साल की बिटिया छवि के साथ रहता था। अजय मद्य (शराब) पीने का आदि था। एक दिन संध्या के समय हल्की रोशनी कमरे में बिखरी हुई थी। हवा में एक अजीब-सी खामोशी थी, मानो कोई दबी हुई चीख़ अपने लिए राह ढूंढ रही हो। दीवार पर टँगी ड्राइंग में एक मासूम बच्ची ने रंग-बिरंगे स्केच पेन से अपने पिता की मद्यपान करते हुए तस्वीर बनाई थी, जिसमें उसने नीचे लिखा था:
“पापा — मेरे सुपरहीरो!”
छवि की 9 साल की उम्र में उसकी दुनिया का केंद्र मात्र उसके पापा अजय थे। अजय एक प्राइवेट कंपनी में इंजीनियर, पढ़े-लिखे, मेहनती और जिम्मेदार इंसान थे, पर हर इंसान की एक कमजोरी होती है, इसी तरह अजय की कमजोरी थी मद्यपान।
अजय शुरुआत में दफ्तर की पार्टियों, दोस्तों के साथ या फिर काम के तनाव से राहत पाने का बहाना बनाकर मद्यपान करता था और कब यह शराब पीने की आदत उसकी लत बन गई, खुद अजय को भी पता नहीं चला।
उनकी पत्नी कविता कई बार समझाती रही —
“अजय, छवि अब बड़ी हो रही है। वह सब कुछ समझती है। उसे क्या सिखाओगे?”
अजय हँसकर टाल देता —
“मैं कंट्रोल में हूँ कविता… चिंता मत करो।”
लेकिन मद्य कभी किसी के कंट्रोल में नहीं रहता। धीरे-धीरे वही शराब उसके व्यवहार में उतरने लगी। फिर घर देर से आना, छोटी बातों पर चिल्लाना, कभी-कभी तो छवि के सामने लड़खड़ाकर गिर जाना और फिर एक रात वह आयी… जिस रात ने सब कुछ बदल दिया।
उस दिन छवि की तबीयत अचानक बिगड़ गई। तेज बुखार से उसकी सांस फूलने लगी, यह देखकर कविता घबरा गई। अजय बगल में मद्य के नशे में चूर बेसुध पड़ा था। कविता ने उसे झकझोरा, पुकारा, रोई लेकिन अजय नहीं उठ सका।
आख़िरकार, पड़ोसियों की मदद से कविता अपनी बिटिया छवि को अस्पताल ले गई।
डॉक्टर ने कहा —
“अगर आधा घंटा और देर हो जाता, तो हम शायद… कुछ नहीं कर पाते।”
जब सुबह अजय को होश आया, वह अस्पताल भागा। छवि के चेहरे पर ऑक्सीजन मास्क था, आँखें बुझी-बुझी थीं, पर जब अजय ने छवि का हाथ थामा, तो वह धीमे से बोली —
“पापा… आप तो मेरे हीरो थे ना? फिर आप ऐसे क्यों हो गए?”
उस एक वाक्य ने अजय को भीतर तक तोड़ दिया। वह कुछ नहीं बोल सका। बस छवि की मासूम आँखें उसे देखते हुए जैसे पूछ रही थीं:
“क्या मद्य पापा से भी बड़ा हो गया?”
अजय अस्पताल से घर लौटा। उसने शराब की आखिरी बोतल को उठाया और सीधा मोहल्ले के मंदिर में गया। वहाँ जाकर उसने वह बोतल भगवान के चरणों में रख दी।
फिर हाथ जोड़कर बोला:
“मैंने आज अपनी बेटी की आँखों में अपने अंत का दृश्य देख लिया है, अब और नहीं।”
उस दिन से अजय के जीवन में सब कुछ बदल गया।
अजय ने अपनी नौकरी बदली, भले ही पैसे कम मिलते थे, पर इस नौकरी में तनाव बिलकुल नहीं था। धीरे-धीरे उसने अपनी जीवनशैली बदली और मद्य को पूर्ण रूप से त्याग दिया। वह संयम से व्यायाम और प्रभु का ध्यान करने लगा। अब हर दिन वह खुद को अपने परिवार और अपनी बेटी के लिए फिर से बनाता रहा।
आज अजय एक मद्यविरुद्ध कार्यकर्ता है। वह हर जनसभा, हर स्कूल, हर मोहल्ला सभा में बस एक बात कहता है:
“अगर आप अपने बच्चों की आँखों में गर्व देखना चाहते हैं,
तो अपने होंठों से मद्य की आख़िरी घूंट छोड़ दीजिए।”
अब उनके घर की दीवार पर एक नई तस्वीर टँगी है —
छवि ने फिर से अपने पापा को सुपरहीरो बनाया है।
पर इस बार, उनके हाथ में शराब की बोतल नहीं है, बल्कि एक बोर्ड है जिसमें लिखा है:
“मैं मद्य छोड़ चुका हूँ और अब ज़िन्दगी को समझ चुका हूँ।”
छवि के मासूम सवाल — “पापा… आप तो मेरे हीरो थे ना? फिर आप ऐसे क्यों हो गए?” — ने अजय को भीतर से झकझोर दिया। उसी क्षण उसने मद्य का त्याग कर दिया और अपने जीवन को संयम, सेवा और प्रभु स्मरण से परिपूर्ण कर लिया। यह कहानी हमें यह गहरा संदेश देती है कि मद्यपान केवल शरीर को नहीं, बल्कि पूरे परिवार को तोड़ देता है। इसका नाम ही “शराब” है, जो “श्राप” का ही रूप है — जिसे पीने के बाद व्यक्ति अपने ही प्रियजनों की नज़रों में गिर जाता है और आत्मिक दूरी भी बढ़ जाती है। मद्यपान मनुष्य से उसकी समझ, संवेदना और सम्मान तीनों छीन लेता है। इसलिए, यदि जीवन में सच्चा सुख, प्रेम और सम्मान चाहिए, तो मद्य को त्यागकर संयम और स्वाभिमान का मार्ग अपनाना ही एकमात्र उपाय है।
मद्यपान के लिए कहा है:
“मद्यं न करोति सुखं, न शान्तिं, न कीर्ति-वर्धनम्।
सर्वनाशं हि तद् याति, यः पिबेत्तं स दुर्बुद्धिः॥”
(मद्य न तो सुख देता है, न शांति और न ही यश बढ़ाता है; यह केवल सर्वनाश की ओर ले जाता है। जो इसे पीता है, वह दुर्बुद्धि कहलाता है।)
“यस्यास्ति संततं संयमः, स तुष्यति आत्मनैव हि।
त्यज मद्यं, सुखं प्राप्य, संतोषं च लभस्व वै॥”
(जो व्यक्ति संयम को अपनाता है, वही आत्मिक सुख पाता है। अतः मद्य का त्याग करो और सच्चा सुख एवं संतोष प्राप्त करो।)
योगेश गहतोड़ी
नई दिल्ली