
विधा- दोहा
शुक्लपक्ष की पंचमी, सावन का शुभ मास।
नागपंचमी मनाते, मन में ले कुछ आस।।
पूजा करते नाग की, इस दिन हो एकत्र।
दूध पिलाते नाग को, शुभ विचार ज्यों इत्र।।
वन्यजीव, भू-जीव व, जलज-जीवन सबु जान।
नहीं सताओ इन्हें तुम, दे दो जीवन-दान।।
सर्प रहेंगे, नहीं हों, चूहे लो नर मानि।
फसल रहेगी सुरक्षित, वरना होवे हानि।।
शिवजी धारण कर गले, देते हैं सन्देश।
योगदान इनका बहुत, नहीं मनुज से क्लेश।।
जो जिनका आहार है, करते हैं सुख मान।
पेट वहीं उनका भरे, किया गरल विष पान।।
शुभ मुहूर्त, शुभ कर्म हो, परहित जिनका नेह।
ऐसे प्रभु शिव हैं मेरे, जिनका नहीं है गेह।।
विचरण करते सब जगह, चाँद, गंग रही छाय।
नीलकण्ठ, विषपाणि शिव, रही दुनिया यश गाय।।
काल नासते तुम प्रभु, नागों के हो मीत।
छाल पहन सर्वत्र तुम, करते गा हरि गीत।।
जो तुमको दु:ख देय न, उसको न दु:ख देव।
यही मरम तुम सिखाते, यहीं छुपा सब भेव।।
बृक्ष नहीं फल खात निज, सबके हित दें फेंक।
नदी सभी को देत जल, मान सभी को एक।।
परहित मानव देह पा, करलो खूब विचार।
प्रकृति, प्रकृति के जीव सब, परहित तिन्ह आचार।।
फिर क्यों परहित से डरे, तजे धर्म व कर्म।
मानव देही न मिले, समझो अपना धर्म।।
धर्म-कर्म, कर्तव्य निज, लीजे सदा विचार।
सोच-समझ कर कर्म तू, रहित सदा हो भार।।
नाग पूज, कीजे दया, सब जीवों पर जान।
तुझ पर आये आँच न, मर्म लेव पहचान।।
रचना-
पं० जुगल किशोर त्रिपाठी (साहित्यकार)
मऊरानीपुर, झाँसी (उ०प्र०)