
!! कर्णवेध का तात्पर्य और उसकी महिमा !!
इस संस्कार में विशेष विधिपूर्वक बालक एवं बालिका के दाहिने एवं बाएं कान का छेदन किया जाता है । व्यासस्मृति में इस संस्कारकी षोडश संस्कारों में गणना है और वहाँ बताया गया है कि– ‘कृतचूडे चा बाले च कर्णवेधो विधीयते ।।’ {व्यास स्मृति १।१९}
अर्थात्
जिसका चूडाकरण हो गया हो, उस बालकका कर्णवेध करना चाहिए । बालक के जन्म होने के तीसरे अथवा पाँचवें वर्षमें कर्णवेध करने की आज्ञा है ।
दीर्घायु और श्रीकी वृद्धिके लिए कर्णवेधसंस्कार की शास्त्रों में विशेष प्रशंसा की गई है—
कर्णवेधं प्रशंसन्ति पुष्ट्यायुः श्रीवविवृद्धये’
{गर्ग} ।
इसमें दोनों कानों में वेध करके उनकी नसोंको ठीक करने के लिए सुवर्ण का कुण्डल धारण कराया जाता है । इससे शारीरिक रक्षा होती है । महान् चिकित्सा शास्त्री आचार्य सुश्रुत ने लिखा है कि रक्षा और आभूषण के लिए बालक के दोनों कान छेदे जाते हैं ।
शुभ मुहूर्त और नक्षत्र में मांगलिक कृत्य एवं स्वस्तिवाचन करके कुमार को माता के अंक में बिठाकर खिलौने से बहलाते हुए-पुचकरते हुए उसके दोनों कान छेदने चाहिये । यदि पुत्र हो तो पहिले दाहिना कान छेदें और कन्या का पहले बाँया कान छेदना चाहिए । कन्या की नाक भी छेदी जाती है और बींधने के पश्चात् छेद में पिचुवर्ती {कपड़े की नरम बत्ती} पहना देनी चाहिए ।
रक्षाभूषणनिमित्तं बालस्य कर्णौ विध्येते ।
””पूर्वं दक्षिणं कुमारस्य वामं कुमार्तया:, ततः पिचुवर्ति प्रवेशयेत् ।’
{सुश्रुत संहिता सूत्र० १६।३}
जब छिद्र पुष्ट हो जाय तो सुवर्णका कुण्डल आदि पहनाना चाहिये । सुवर्णके स्पर्श से बालक स्वस्थ और दीर्घायु होता है । बालकके कान में सूर्य की किरण के प्रवेशके योग्य और कन्या के कान में आभूषण पहनने योग्य छिद्र करना कराना चाहिए ।
कुमार तंत्र {चक्रपाणि}– में कहा गया है कि कर्णवेधसंस्कारसे बाल आरिष्ट उत्पन्न करनेवाले बाल ग्रहोंसे बालक की रक्षा होती है और इसमें कुण्डल आदि धारण करने से मुखकी शोभा होती है ।।
कर्णव्यधे कृतो बालो न ग्रहैरभिभूयते ।
भूष्यतेऽस्य मुखं तस्मात् कार्यस्तत् कर्णयोर्व्यधः ।।
साभार– गीताप्रेस गोरखपुर
लेखन एवं प्रेषण—
पं. बलराम शरण शुक्ल
नवोदय नगर हरिद्वार