
विधा- काव्य
अगर हृदय में दिव्य प्रेम हो,
भाव विमल यदि रहता है।
तो होता नूतन प्रकाश जो,
प्रतिपल रुप बदलता है।।
दिखता है सारा जग हमको,
व्यथा, समस्यायें, पीड़ा।
क्यों विकास का थमा हुआ रथ,
किसे काटता, क्यों क्रीड़ा?
ये विकार का क्रीड़ा जब तक,
तुम्हें काटता रहता है।
तब तक उलझे रहते निज में,
ये मुक्त तुम्हें न करता है।।
पहले इसे सँभालो, इसको,
दूर करो या नष्ट करो।
इस संग अगर किया हित तुमने,
तो क्यों जीवन भृष्ट करो?
मन, इन्द्रिय पर काबू करना,
जीत जितेन्द्रिय बनना तुम।
फिर जग के सहयोगी बनकर,
आस नयी उर भरना तुम।।
तब सहयोग प्रतिष्ठित होगा,
जन-जन गौरव पायेगा।
थोड़ा सा सन्देश तुम्हारा,
उन्हें पार ले जायेगा।।
फिर जो कहोगे और करोगे,
सबमें ही सहयोग रहे।
सभी तुम्हें आशा से देखें,
पल प्रति शुभ संयोग बहें।।
रचना-
पं० जुगल किशोर त्रिपाठी, झाँसी