
जहाँ शिक्षा की बात आती है तो स्त्री शिक्षा पर बात करना ज़रूरी हो जाता है। पर मेरे विचार से यह शिक्षा का विषय होते हुये भी इस पर प्रथक तरीके से विचार होना चाहिये।
अब्राहम लिन्कन के शब्दों में “तुम मुझे योग्य माँये दो , मैं तुम्हें योग्य राष्ट्र दूँगा”।
स्त्री शिक्षा वस्तुत : सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली का मूल आधार है । स्त्री शिक्षा की हवा चली तो परिवर्तन आ रहा है, पर इसके साथ एक तरफ चूल्हा – चौका की मानसिकता घिरी रहती है तो दूसरी तरफ शिक्षित होते हुये भी उच्च पदों पर बैठे पतियो की पत्निया क्लबो, पार्टियों-ताश खेलने व शापिंग और घूमने फिरने में जीवन व्यतीत कर रही, वे बोर होने की शिकायत भी करती हैं पर उनके बच्चों का पालन – पोषण नौकर करते हैं। जबकि उनका उत्तर दायित्व है बच्चों को अच्छे संस्कार दें और समाज के विकास में योगदान दें ।
आज भी “यत्र नार्यस्तु पुज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता” की मान्यता वाले देश में समुचित शिक्षा के अभाव में भी स्त्रियों को उनका उचित स्थान नहीं मिल पाया है ।
“स्त्री स्वातन्त्र्य” की बातें कोरे नारे लगने लगी हैं । आज महिला यों तो कहाँ से कहाँ पहुँच गयी है, किंतु स्त्री स्वाधीन पहले भी नहीं थी, स्वाधीन वह अब भी नहीं है । वह तो स्वाधीन होने का कभी – कभी तो दिखावा कर स्वतंत्र होने की खुशफहमी पाल लेती है, परंतु पुरुसत्वी अहं न कभी खत्म हुआ था, न खत्म हुआ है और न शायद कभी खत्म होगा ! बस चोले ज़रूर बदल लेता है।
नारी स्वतंत्रता की दुहाई देने वाला पुरुष भी स्त्री की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं बर्दाश्त कर पाता, यह एक कटु सत्य है, चाहे कोई माने या न माने।
जबकि माना गया है कि “Men are what their Mothers made them”. यदि इस सिद्धांत को सही तरीक़े से अपनाया जाय तो स्त्री शिक्षा की सार्थकता भी बढ़ेगी और नयी पीढ़ी व नये समाज का समुचित विकास भी सम्भव होगा।
तात्पर्य यह है कि स्त्री शिक्षा व महिलाओं के समुचित विकास में ही देश व समाज का पूर्ण विकास हो पाना सम्भव है ।आज के परिप्रेक्ष्य में महिला कमज़ोर होने की वजह से ही सामूहिक बलात्कार, बालिका गृहों में यौन शोषण एवं दहेज हत्यायें व अन्य तरह के अत्याचार स्त्रियों व बालिकाओं पर होते हैं अतः स्त्री के समग्र सशक्तिकरण के लिए स्त्री शिक्षा में आमूल – चूल बदलाव की ज़रूरत है।
डा. कर्नल आदि शंकर मिश्र
‘आदित्य’, ‘विद्यावाचस्पति’
लखनऊ