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साम रहस्य

{बहुत ही महत्वपूर्ण लेख थोड़ा बड़ा लेख है अवश्य पढ़े विशेष निवेदन}

१. स्तुति-यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्र मरुतैः स्तुन्वन्ति दिव्यैस्तवैः,
वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैः गायन्ति यं सामगाः।
ध्यानावस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनः,
यस्यान्तं न विदुः सुरासुर गणाः, देवाय तस्मै नमः॥
(भागवत पुराण, १२/१३/१)

ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्गण जिनकी दिव्य स्तोत्रों से स्तुति करते हैं, साम-संगीत के मर्मज्ञ ऋषि-मुनि अङ, पद, क्रम और उपनिषदॊं सहित वेदों द्वारा जिसका गान करते हैं, योगी ध्यान द्वारा समाधि स्थिति में जिनको मन से देखते हैं,
किन्तु जिसे देव-असुर मनुष्य कोई भी पूर्ण रूप से नहीं जान सकते, उस परब्रह्म को नमकार है ।।
वेद संहिता शब्द रूप में तो सीमित है, किन्तु अर्थ रूप में अनन्त है ।
अनन्ताः वै वेदाः ।
(तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/१०/११)
अतः भरद्वाज ऋषि ने ३ जन्मों तक जो अध्ययन किया था, उसे इन्द्र ने ३ पर्वत रूपी ३ वेदों की १-१ मुट्ठी धूल मात्र कहा था । वेद शाखाओं में भी सामवेद सबसे कठिन है, जिसे भगवान् ने स्वयं अपना स्वरूप कहा है-
वेदानां सामवेदोऽस्मि
(गीता, १०/२२)

{आज तक मैंने जितनी वैदिक चर्चा, लेख या पुस्तक पढ़े हैं, उनमें सामवेद का उद्धरण नहीं देखा है। सामवेद के बारे में केवल उन्हीं से सुना जिन्होंने कोई वेद नहीं पढ़ा था । प्रायः ६५ वर्ष पूर्व माता से सुना था कि कि पुत्र, जन्म के समय जो सोहर गाया जाता है उसका उच्चारण वेद मन्त्र जैसा होता है-हर अक्षर पर पूरा ध्यान देते हैं । ५ वर्ष पूर्व संगीतज्ञ पण्डित छन्नूलाल मिश्र जी का कृष्ण जन्म सम्बन्धी सोहर सुना जिस परम्परा का आरम्भ सामवेद के प्रथम मन्त्र से कहा तथा उसे भी सोहर की तरह गाया। भारत के प्रथम रेल मन्त्री श्री पुनाचा जी ने बताया था कि कर्णाटक का यक्षगान भी साम गायन है । श्री राजेश्वर शास्त्री ने बताया कि भोजपुरी क्षेत्र में विवाह समय सन्ध्या-प्रातः के लोकगीत संझा-पराती भी सामगायन की तरह होते हैं ।
साम भाष्य के अधिकारी विषय में सप्तर्षि कुलम् द्वारा आयोजित वेबिनार में २ अप्रैल २०२३ को सामवेद तथा संगीत मर्मज्ञ श्री ऋषिराज पाठक का व्याख्यान सुना । विषय का परिचय शास्त्री श्री राजेश कुमार मिश्र ने दिया तथा व्याकरण के विशेषज्ञ श्री राजेश्वर शास्त्री जी ने कुछ तत्त्वों की व्याख्या की। वेबिनार आयोजक श्री श्वेतकेतु आयोद (धीरज शुक्ल जी) के साथ मैं भी उपस्थित था, जिनका मूल विषय तो भौतिक विज्ञान है किन्तु वैदिक साहित्य का परिचय है। अध्ययन कहना उचित नहीं होगा। सामवेद के अति संक्षिप्त परिचय का जितना अंश समझा वह इस लेख में है ।।}
२.. वेद संहिता और शाखा–
मूल वेद एक ही था जिसे ब्रह्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को पढ़ाया था । भरद्वाज ने इसे परा विद्या (विद्या, एकत्व) अपरा विद्या (अविद्या, वर्गीकरण) में विभाजित किया । अपरा विद्या से ४ वेद और ६ अंग हुए ।।
ब्रह्मा देवानां प्रथमं सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता ।
स ब्रह्म विद्यां सर्व विद्या प्रतिष्ठा मथर्वाय ज्येष्ठ पुत्राय प्राह ।
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्मा ऽथर्वा तां पुरो वाचाङ्गिरे ब्रह्म-विद्याम् ।
स भरद्वाजाय सत्यवहाय प्राह भरद्वाजो ऽङ्गिरसे परावराम् ।
द्वे विद्ये वेदितव्ये- … परा चैव, अपरा च। तत्र अपरा ऋग्वेदो, यजुर्वेदः, सामवेदो ऽथर्ववेदः, शिक्षा, कल्पो, व्याकरणं, निरुक्तं, छन्दो, ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते।
(मुण्डकोपनिषद्,१/१/१-५)
अथर्वा को पढ़ाने के कारण मूल एक वेद को अथर्व वेद कहते थे ।
उससे ३ शाखायें– ऋक्, यजु, साम – निकलने के बाद मूल भी बचा रहा, अतः त्रयी का अर्थ ४ वेद होता है। इसके प्रतीक रूप में वेदारम्भ संस्कार में पलास दण्ड रखते हैं, जिसकी शाखा से ३ पत्ते निकलते हैं, पर शाखा भी बची रहती है। इस कारण ब्रह्म का प्रतीक पलास है ।।
यस्मिन् वृक्षे सुपलाशे देवैः संपिबते यमः। अत्रा नो विश्पतिः पिता पुराणां अनु वेनति॥
(ऋक्, १०/१३५/१)
*सर्वेषां वा एष वनस्पतीनां योनिर्यत् पलासः। (स्वायम्भुव ब्रह्मरूपत्त्वात्) *तेजो वै ब्रह्मवर्चसं वनस्पतीनां पलाशः ।* (ऐतरेय ब्राह्मण, २/१)
अतः ऋग्वेद में सामवेद, अथर्व वेद का भी कई बार उल्लेख है। इस क्रम को नष्ट करने के लिए प्रचार होता है कि ऋग्वेद सबसे प्राचीन हैं, उसके बाद क्रमशः यजु, साम, अथर्व वेद हुए ।।
वेदों के वर्गीकरण का आधार है कि मूर्ति (भौतिक स्वरूप) का वर्णन ऋक् है,
गति (अन्तः गति कृष्ण,बाह्य गति शुक्ल) का वर्णन यजु है ।
जिस चक्रीय क्रिया द्वारा उत्पादन होता है, वह यज्ञ है, और यह यजुर्वेद का विषय है ।
तेज या महिमा साम वेद है ।
सबका आधार या ब्रह्मविद्या अथर्व है।
अविभाज्य ब्रह्म रूप में इसका विभाजन नहीं हुआ ।।
ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्।
सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्॥
(तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/१२/८/१)
वेदों के अनुसार विद् धातु के ४ अर्थ हैं–
किसी वस्तु के ज्ञान के लिए उसकी स्थिति (ऋक्) होनी चाहिये-
विद् सत्तायाम्
(पाणिनीय धातुपाठ, ४/६०)।
वस्तु से कोई प्रकाश, ताप, शब्द, गन्ध आदि हम तक पहुंचे तभी उसका ज्ञान होगा । इसमें परिवर्तन से उसकी गति का ज्ञान होगा ।
यह गति रूप यजु है —
विद्लृ लाभे (६/१४१)।
किसी वस्तु की महिमा या तेज जहां तक है, वहीं तक उसका ज्ञान हो सकता है। अतः साम ज्ञान रूप है और भगवान् का स्वरूप है–
विद् ज्ञाने (२/५७)।
सूचना हम तक पहुंचने के बाद उसका विचार मन द्वारा होता है,
जो चेतना का निवास है ।
यह आधार रूप अथर्व
(थर्व = थरथराना, अथर्व – स्थिर)
इस अर्थ में विद् के २ प्रयोग हैं–
विद् विचारणे (७/१३),
विद् चेतनाख्याननिवासेषु ।
(१०/१७७)।
विश्व का वर्णन ३ x ७ = २१ रूपों में है, अतः ऋक् की २१ शाखा हैं ।।
ये त्रिषप्ताः परियन्तिविश्वाः ।
(अथर्व वेद, १/१/१)
सप्तास्यासन् परिधयः त्रिस्सप्त समिधः कृताः।
(पुरुष सूक्त, वाज, यजु, ३१/१५)
शुक्ल या दृश्य गति ३ प्रकार की है– निकट आना, दूर जाना, यथा स्थिति या सम दूरी पर रहना ।
५ महाभूतों की ३ x ५ = १५ प्रकार की गति होगी। अतः शुक्ल यजुर्वेद की १५ शाखा हैं ।
किसी तल को एक चिह्न गति द्वारा १७ प्रकार से घेर सकता है, अर्थात् १७ प्रकार के चित्र से तल भरेगा ।
इसे आधुनिक बीजगणित में समतल चिति सिद्धान्त कहते हैं ।।
(Plane crystallography theorem)
सम्भवतः यह प्राचीन गणित में भी ज्ञात था, अतः ज्योतिष में १७ को मेघ कहते हैं, जो चादर की तरह ढंक लेता है। ५ महाभूतों की १७ x ५ = ८५ प्रकार की चिति होगी ।
एक स्थायी तत्त्व है, जिसे मिला कर कृष्ण यजुर्वेद की ८६ शाखा हैं ।।
अन्य प्रकार से आकाश के १० आयामों के अनुसार विभाजन हैं ।
ऋक् में धनात्मक दिशा में १०, ऋण दिशा में १० तथा १ सन्दर्भ विन्दु मिला कर २१ शाखा हैं ।।
यजुर्वेद में १० विन्दुओं से १० दिशा में गति १० x १० = १०० प्रकार की होगी ।।
सामवेद में प्रत्येक गति स्थान से १० दिशा में प्रभाव होगा, अतः १० x १० x १० = १००० शाखा हैं ।।
अथर्व में ५ महाभूतों के ५ x १० = ५० आधार हैं ।।
सामवेद की १००० शाखाओं को गान भेद से माना गया है, वस्तुतः कई हजार शाखा होंगी। शब्द रूप की १३ शाखायें ही साम-तर्पण विधि में वर्णित हैं। अथर्व वेद की शाखा भी कई स्थानों पर ९ मानी गयी हैं। आकाश में २ प्रकार की माप के कारण यह भेद है । सूर्य का तेज १००० व्यास तक है ।
(सहस्राक्ष या सहस्रांशु)
यह धाम गणना में १३ होगा ।
३ धाम पृथ्वी के भीतर हैं । बाहरी धाम क्रमशः २-२ गुणा बड़े हैं ।।
(बृहदारण्यक उपनिषद्, ३/२/२)।
१० बार २ गुणा करने पर दशम धाम १००० गुणा (१०२४) दूरी तक होगा। इसी प्रकार पृथ्वी का गुरुत्व क्षेत्र ९ धाम तक है, जिसमें चन्द्र प्रायः ६० गुणा दूरी तक है ।
अतः अथर्व वेद की शब्द रूप में ९ शाखा हैं ।।
एकविंशति भेदेन ऋग्वेदं कृतवान् पुरा। शाखानान्तु शतेनाथ यजुर्वेदमथाकरोत्॥१९॥
सामवेदं सहस्रेण शाखानाञ्च विभेदतः। अथर्व्वाणमथो वेदं बिभेद नवकेन तु॥२०॥
(कूर्म पुराण, अध्याय ५२)
एकशतमध्वर्युशाखाः, सहस्रवर्त्मा सामवेदः, एकविंशतिधा बाहवृच्यं, नवधाऽऽथर्वणो वेदः।
(पतञ्जलि, व्याकरण महाभाष्य, १/१/१)
ऋग्वेदस्य तु शाखाः स्युरेकविंशति संख्यका। नवाधिकशतं शाखा यजुषो मारुतात्मज॥१२॥
सहस्रसंख्यया जाताः शाखाः साम्नः परन्तप। अथर्वणस्य शाखाः स्युः पञ्चाशद् भेदतो हरे॥१३॥
(मुक्तिकोपनिषद्)
सामतर्पण विधि में सामवेद की १३ शाखायें ही कही जाती हैं-
१. राणायण, २. शाट्यमुग्न्य,
३. व्यास, ४. भागुरि, ५. औलुण्डी, ६. गौल्गुलवी, भानुमान्- ७.औपमन्यव, ८. काराटि, ९ मशक गार्ग्य, १०. वार्षगव्य, ११. कुथुम, १२. शालिहोत्र, १३. जैमिनी ।
३.. साम गणना–
विष्णु सहस्रनाम में साम सम्बन्धी नाम हैं-
त्रिसामा, सामगः सामः
(श्लोक ७५)
साम रूप महिमा के कारण उनका ज्ञान होता है। हमारा साम भगवान् तक स्तुति माध्यम से पहुंचता है, अतः सामगान करते हैं ।।
त्रिसामा के कई अर्थ हैं ।
सौर मण्डल में सूर्य का साम या प्रभाव क्षेत्र ३ भाग में बांटा गया है-
अग्नि या ताप क्षेत्र, वायु या सौर वायु का प्रवाह क्षेत्र, रवि या प्रकाश क्षेत्र जहां तक उसका प्रकाश ब्रह्माण्ड से अधिक है। ये सूर्य रूपी विष्णु के ३ पद हैं। परम पद सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है, जहां तक वह विन्दु मात्र दीखता है (सूर्य सिद्धान्त, १२/९०)। वहां तक का साम ३ से अलग वैराज साम है ।।
अग्नि वायु रविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् ।
दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुः साम लक्षणम् ॥ (मनु स्मृति, १/२३)
ताप क्षेत्र १०० सूर्य व्यास या पृथ्वी कक्षा तक है । उसके बाद १००० व्यास तक सूर्य रथ का चक्र है, जिसे सहस्राक्ष कहा है । ३००० व्यास तक वायु क्षेत्र तथा १ लाख व्यास दूर तक आकर्षण क्षेत्र है, जिसे सौर मण्डल की पृथ्वी कहते हैं । इनकी माप त्रिष्टुप् छन्द के ३ पादों से है-११ अहर्गण या पृथ्वी व्यास का २ घात ८ दूरी तक है । २२ धाम या पृथ्वी व्यास का २ घात १९ गुणा वायु क्षेत्र है । ३३ अहर्गण या ३० धाम तक सौर मण्डल की वाक् है ।।

त्रिं॒शद्धाम॒ वि रा॑जति॒ वाक् प॑त॒ङ्गाय॑ धीयते । प्रति॒ वस्तो॒रह॒ द्युभिः॑ ॥
(ऋक् १०/१८९/३)
पिण्ड से उसके साम तक के क्षेत्र की २ सीमायें हरि हैं-
ऋक्सामे वा इन्द्रस्य हरी (ऐतरेय ब्राह्मण, २/२४, तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/६/३/६)
शून्य आकाश में विकिरण रूप में तेज इन्द्र है ।।
नेन्द्रात् ऋते पवते धाम किञ्चन ।
(ऋक्, ९/६९/६)
जगन्नाथ धाम में ३ साम हैं-जगन्नाथ विग्रह ऋक् है।
जगन्नाथ मन्दिर प्रथम साम है ।
द्वितीय साम पुरी नगरी है,
जिसकी सीमा पर चन्दन पुर है–
चन्दन = आवरण
(छदि संवरणे, धातुपाठ, १०/४६, २४८)
तृतीय साम पुरी धाम की सीमा है जिसे एकाम्र या हरिचन्दन कहते हैं।उषा प्रसङ्ग में कहा है कि उषा ३० धाम वरुण दिशा पश्चिम रहती है ।।
(ऋक्, १/१२३/८)
भारत में १५ अंश तक उषा काल मानते हैं ।।
विषुव रेखा पर १५ धाम = ३० अंश । १ धाम = १/२ अंश = ५५.५ किमी./
पुरी से एकाम्र स्थान लिङ्गराज ठीक ५५.५ किमी है । इसे पुराणों में ५ योजन कहा है ।।
संगीत में त्रिसाम का अर्थ है–
नृत्य, वाद्य और गीत का समन्वय ।
साम को साहस्री भी कहा जाता है ।। इन्द्र (विकिरण) और–
विष्णु (सूर्य आकर्षण) की प्रतिस्पर्धा से ३ साहस्री हुई-लोक, वेद, वाक् ।
उभा जिग्यथुर्न पराजयेथे, न पराजिज्ञे कतरश्च नैनोः।
इन्द्रश्च विष्णू यदपस्पृधेथां त्रेधा सहस्रं वि तदैरयेथाम्॥
(ऋक्, ६/६९/८)

किं तत् सहस्रमिति? इमे लोकाः, इमे वेदाः, अथो वागिति ब्रूयात् ।
(ऐतरेय ब्राह्मण, ६/१४)
यहां लोक, वेद, वाक् क्षेत्र वही हैं जिनको अन्य प्रकार से अग्नि, वायु, रवि कहा गया है ।
व्यक्ति अर्थ में इन्द्र शक्ति का ह्रास या व्यय है, विष्णु वृद्धि है ।। इनको गीता (४/२९) में,
प्राण-अपान का योग या केवल प्राण यज्ञ कहा है ।।
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायाम परायणाः॥२९॥
अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति॥३०॥
यहां लोक = मनुष्य, वेद = उसकी चेतना, आत्मा, वाक् = प्रभाव।
यजुर्वेद के अन्त में निर्माण यज्ञ और विनाश का सन्तुलन कहा गया है, जो साम है ।।
सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह। विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याऽमृतमश्नुते ।।
(ईशावास्योपनिषद्, ११)
यहां लोक का अर्थ विश्व के स्तर हैं, वेद का अर्थ है,
उनकी स्थिति- गति-ज्ञान, वाक् का अर्थ साम या महिमा है ।।
सहस्र का अर्थ है– साथ चलना ।
सह = साथ, स्र = चलना ।
किसी व्यक्ति के सम्पर्क में प्रायः हजार व्यक्ति ही हो सकते हैं। अतः सहस्र = १०००। गांव भी १-१० हजार व्यक्तियों तक के होते हैं । सेना मॆं भी हजार व्यक्ति ही एक साथ रह सकते हैं । इससे अधिक के आवास, भोजन की व्यवस्था सम्भव नहीं है ।।
महिमा क्षेत्र के विन्दु अनन्त हैं । इस दृष्टि से साम का अर्थ अनन्त है।
साम अदृश्य प्राण है जो पूरे आकाश में फैला है। इसका मूल रूप रस या आनन्द था ।।
(तैत्तिरीय उपनिषद्, २/७/२)
इसी से सृष्टि का आरम्भ हुआ, अतः वह ब्रह्म रूप है ।।
स्थूल शरीर या पदार्थ स्त्री है (प्रकृति), प्राण या चेतन तत्त्व पुरुष है ।
अतः पत्नी को पति विवाह के समय कहता है कि, तुम ऋक हो, मैं साम हूँ ।।
४.. वेद अनुवाद में कठिनाई —
वेदों का अनुवाद नहीं होता । अनुवाद का अर्थ है उसी शब्द को पुनः कहना । अन्य भाषा में कहने को अंग्रेजी में ट्रांसलेशन कहते हैं ।।
वेदमन्त्रों के संस्था के अनुसार कई अर्थ होते हैं–
अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव । अधिभूत में भी कई प्रकार के अर्थ हैं-विज्ञान विषयों की परिभाषा, भौगोलिक भिन्नता, ऐतिहासिक प्रचलन (निपात), लोक भाषा भिन्नता। कुल मिला कर ७ संस्थायें कही गयी हैं ।।
इतीमानि चत्वारि पदजातान्यनुक्रान्तानि। नामाख्याते चोपसर्ग-निपाताश्च ।
(निरुक्त, १/१२)
यास्सप्त संस्था या एवैतास्सप्त होत्राः प्राचीर्वषट् कुर्वन्ति ता एव ताः।
(जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद् १/२१/४)
छन्दांसि वाऽअस्य सप्त धाम प्रियाणि । सप्त योनीरिति चितिरेतदाह ।
(शतपथ ब्राह्मण, ९/२/३/४४, वाज. यजु ,१७/७९)
अध्यात्ममधिभूतमधिदैवं च ।
(तत्त्व समास, ७)
मूल अर्थ केवल भौतिक पदार्थ सम्बन्धित थे-
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्। वेद शब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे॥
(मनु स्मृति, १/२१)
संस्कृत वाक्यों के अर्थ और शब्दकोष में कई कठिनाइयां हैं–
(१) सन्धि-समास द्वारा शब्द रूप और अर्थ बदलते हैं ।।
(२) कोष में केवल मूल शब्द का अर्थ रहता है । ७ कारकों के ३ वचन में २१ रूप तथा धातुओं के १० लकारों में ३ पुरुष, ३ वचन के ९० रूप हैं जिनका उल्लेख नहीं होता ।।
लङ् लकार में भी २ रूप हैं– आशीः और विधि।
(३) प्रसंग या उद्देश्य (विनियोग) तथा देवता के अनुसार अर्थ होते हैं ।
(४) संस्थाओं के अनुसार अर्थों के ३ या ५ भेद किये गये हैं ।
अध्यात्म, अधिभूत-अधिदैव (गीता, ८/१-४) या अधिलोक, अधिज्योतिष, अधिविद्या, अधिप्रजा, अध्यात्म ।
(तैत्तिरीय उपनिषद्, १/३/१)
दोनों को मिला कर १५ भेद भी कहे हैं-
यानि पञ्चधा त्रीणि-त्रीणि तेभ्यो न ज्यायः परमन्यदस्ति ।
(छान्दोग्य उपनिषद्, २/२१/३)
यहां एक अर्थ है कि विश्व के ५ पर्वों के ३-३ मनोता (सामों के लक्षण) हैं जिनको साहस्री कहा गया है-
सहस्रधा पञ्चदशानि उक्था यावद् द्यावा पृथिवी तावदित् तत् । (ऋक्, १०/११४/८, ऐतरेय आरण्यक, १/३/८/६)
तन्त्र अनुसार मन्त्रों के १५ अर्थों की सूची भास्करराय भारती के वरिवस्या रहस्य (५७-५९) में है।
(५) वेदों का अन्वय नहीं होता, शब्दों का क्रम बदल नहीं सकते हैं। छन्द तथा पाद के अनुसार अर्थ होते हैं-तेषामृग्यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था। (मीमांसा सूत्र, २/१/३५)। शब्दों को अलग कर पद पाठ करते हैं जिनके कारण अर्थ परिवर्तन सम्भव है।
(६) प्रसंग अनुसार हर भाषा में शब्दों के अर्थ बदलते हैं। संस्कृत में इनके ३ प्रकार से भेद हैं-अभिधा १३ प्रकार के, लक्षणा ८० प्रकार के तथा व्यञ्जना ५७,००० से अधिक।
(७) शब्दार्थ के २ शास्त्र हैं-
व्याकरण द्वारा मूल शब्द में प्रत्यय, उपसर्ग द्वारा अर्थ । मूल रूप से शब्द का वर्णों में विभाजन व्याकरण था-
वाग् वै पराची अव्याकृता अवदत् । ते देवा इन्द्रं अब्रुवन्-इमां नो वाचं व्याकुरुत-इति।
… तां इन्द्रो मध्यत अपक्रम्य व्याकरोत्। तस्मादिदं व्याकृता वाग् उद्यते इति । (तैत्तिरीय संहिता, ६/४/७)
अन्य शास्त्र है, निरुक्त। इस पद्धति को निर्वचन कहते हैं। विज्ञान विषय या प्रसंग अनुसार परिभाषा होती है। वास्तविक विश्व में जैसी क्रिया या परिवर्तन होता है, शब्दों में वैसा ही परिवर्तन होता है।
अतः वेदों का आज तक किसी ने अनुवाद नहीं किया है। सभी उसे भाष्य कहते हैं। हर भाष्यकार ने मन्त्रों का अपनी कल्पना के प्रसंग अनुसार भाष्य किया है। आर्य समाज में भी सातवलेकर, जयदेव शर्मा तथा हरिशरण जी के भाष्यों में पर्याप्त अन्तर है। स्वयं भाष्यकार भी अन्य समय में प्रसंग अनुसार मन्त्र का दूसरा अर्थ करते।
५.. सामभाष्य में विशेष कठिनाई–
इसका संकेत उपनिषद् में है ।।
शीक्षां व्याख्यास्यामः। वर्णः स्वरः । मात्रा बलम् । साम सन्तानः । इत्युक्तः शीक्षाध्यायः ।
(तैत्तिरीय उपनिषद्, १/२/१)
(१) अधिक मात्रा—
सामान्य उच्चारण में ३ मात्रा तक होती हैं, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत ।
संगीत के अनुसार प्रत्येक की ५ मात्रा होती है ।।
इसके अतिरिक्त ३ लय होते हैं–
द्रुत, मध्य, विलम्बित ।
इनको वृत्ति भी कहा गया है-
अभ्यासार्थे द्रुतां वृत्तिं प्रयोगार्थे तु मध्यमम्॥४९॥
शिष्याणामुपदेशार्थे कुर्याद् वृत्तिं विलम्बिताम् । (पाणिनीय शिक्षा)
एक द्रुतविलम्बित छन्द भी है, जिसके एक श्लोक में ३ प्रकार के कार्य कहे गये हैं—
द्रुत गतिः कुरुते धनभाजनः, भवति मन्दगतिश्च सुखोचितः।
द्रुतविलम्बित खेल गतिर्नृपः, सकल राज्य सुखामृतमश्नुते ।।
लौकिक छन्दों में २ ही मात्रा होती हैं, ह्रस्व और दीर्घ
प्लुत का प्रयोग नहीं होता ।
साम के स्वर पाठ को स्वार कहते हैं ।।
सम्भवतः सोहरगीत का नाम इसी से हुआ है । स्वार ६, ८, ९ मात्रा के भी हैं। संगीत मात्रा ५ गुणा तक अर्थात् ९ x ५ = ४५ मात्रा तक हो सकती है। किसी वर्ण को संगीत आलाप में लम्बा तानते हैं, वह मात्रा के अनुसार है ।।
सामवेद कौथुमी संहिता में १८७५ मन्त्र या साम हैं, किन्तु गान संख्या ८,००० है, जो उत्तरार्चिक में हैं ।।
इनका प्रयोग सामयज्ञ में होता है ।।
(२) गान भेद—
साम गायक ४ प्रकार के हैं-उद्गाता, प्रस्तोता, प्रतिहर्ता, सुब्रह्मण्य ।
गान ४ प्रकार के हैं–
ग्राम्य (गांव में),
आरण्य (अरण्य या वन में),
ऊह (तर्क),
उह्य (तर्क द्वारा बोध)।
पुरुष सूक्त (६) प्रसंग में ग्राम्य और आरण्य पशुओं के विशेष अर्थ हैं ।। जिन पशुओं का मेध या प्रयोग होता है, वे ग्राम्य हैं, अन्य आरण्य हैं ।
अस्मै वै लोकाय ग्राम्याः पशवः आलभ्यन्ते। अमुष्मा आरण्याः ।
(तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/९/३/१)
वर्गीकृत गान को ग्राम्य तथा बिखरे हुए गान को आरण्य कह सकते हैं ।।
साम गान के विशेषज्ञ ही इसे स्पष्ट कर सकते हैं ।
(३) पदपाठ—
ऋग्वेद का पदपाठ शाकल्य ने किया था । सामवेद का पदपाठ गार्ग्य ने किया । उदाहरण के लिए शाकल्य ने अद्य (आज) को एक शब्द माना है । सामवेद में गार्ग्य ने इसे २ शब्द माने हैं- अ + द्य। यास्क ने भी इस अर्थ में निर्वचन किया है- अद्य = अस्मिन् द्यवि (इस दिन में)। (निरुक्त, १/६)
(४) सामभाष्य के लिये योग्यता–
सामवेद के जितने भाष्य हुए हैं, उनमें संगीत की कोई चर्चा नहीं है, जो साम का मुख्य विषय है ।
ऋक् के अतिरिक्त सामगान में अन्य कई शब्द हैं, जिनका कोई अर्थ नहीं किया जाता है । इनको स्तोभ कहते हैं ।।
जैसे आहोई, होवा, औहोवा, हाऽऽवु आदि ।
प्रायः २०० वर्ष पूर्व पुण्डरीक चैतन्य देसाई ने स्तोभों के भी अर्थ किये हैं तथा उनके अनुसार संगीत में तराना के लिए शब्द कहते हैं—
जैसे तानानाना । भोजपुरी लोकगीतों में भी कई ऐसे शब्द हैं,
अरे रामा, चैता मासे, हरि । तैत्तिरीय उपनिषद् (३/१०/५) में भी अन्न से सजीव पुरुष होने पर आश्चर्य के लिए कहा है-हा३वु, हा३वु, हा३वु। इससे अंग्रेजी में how हुआ है। भोजन अर्थ में हबर-हबर है-जल्दबाजी में भोजन।
२५ वर्षों तक साम वेद का अध्ययन करने के बाद भी,
ऋषिराज पाठक जी कहते हैं कि १५ वर्ष और अध्ययन आवश्यक है, पूर्णता कभी भी नहीं हो सकती है ।।
अतः आशा है कि वह शीघ्र ही यह कार्य आरम्भ करें । इसके लिए आवश्यक है अध्ययन ।।
(५) प्राचीन भाष्य–
माधव, गुणविष्णु, भरतस्वामी, सायण, सूर्य दैवज्ञ ।
वेदाङ्ग-उच्चारण शिक्षा–
पाणिनीय, नारद, गौतम, लोमश शिक्षा ।
अक्षर तन्त्र– साम, पुष्प सूक्त ।
व्याकरण– सिद्धान्त कौमुदी, काशिका, महाभाष्य ।
निरुक्त, बृहद्देवता।
छन्द-पिङ्गल।
ज्योतिष-केवल ऋक्, यजु, अथर्व के ज्योतिष उपलब्ध हैं, जो बाद के अपूर्ण संस्करण हैं ।
साम-ज्योतिष भी था जो लुप्त हो चुका है ।।
धर्म सूत्र-लाट्यायन, द्राह्यायन, गोभिल, गौतम।
ब्राह्मण-ताण्ड्य, षड्विंश, साम, दैवत, जैमिनीय आर्षेय और साम उपनिषद्, कौथुमी । राणायनीय और कौथुमी में केवल उच्चारण भेद है ।
उपनिषद्-छान्दोग्य ।
सोम याग का अभ्यास।
सभी अध्ययन के बाद ध्यान और साम्य अवस्था में ही भाष्य किया जा सकता है। इसके लिए मन में रज और तमोगुण सम्बन्धी विकार नहीं होना चाहिए ।।
हरिकृपा ।। मंगल कामना ।।
लेख—
ज्योतिर्विद् पं. कमलेश कटारे जी ।।
पुनः सम्पादन व प्रेषण—
पं.बलराम शरण शुक्ल
नवोदय नगर– हरिद्वार

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