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हो अगर सरस विचार, जानों पावन हैं उद्गार

हो यदि सरस विचार विमल तो, होंगे ही उद्गार सुनो।
मानवता उर सतत् बहेगी, इसमें सबका हित यही चुनो।।
गंगा सी हो सरस पावनी, विमल विधु सी मुस्काती।
अन्तर के विकार सब हरती, नित जीवन को मँहकाती।।

अगर सरसता अन्तर मन में, सदा रहे हो दया रहे।
अगर प्रवाह सा उमड़े, कलुषित भाव-विकार बहें।।
जीवन का सौन्दर्य अनूठा, मन को उज्जवल करता है।
भाव विमल कर सोच परम पावन हो नर सुख भरता है।।

सूखा, नीरस, अलसाया हो, नैंनों में न चमक दीखे।
न मुस्कान, हर्ष का लक्षण, अन्तरमुख मन क्या सीखे?
सतत् प्रवाहित है इस जग में, कण-कण में उद्वेलन है।
इसीलिए हर छण परिवर्तन, होय प्रकृति में नर्तन है।।

जहाँ नृत्य है गान वहाँ पर, वही प्रवाहित हो सरिता।
प्रेम, शान्ति, शीतलता बसतीं, दया भाव उर में नमिता।।
जहाँ सरसता तहं बहाव है, अहंकार न टिके वहाँ।
बह जाता लहरों के संग में, प्रेमानन्द प्रवाह वहाँ।।

ऐसे उर में उठते सुन्दर, शुभ विचार हर लें सब त्रास।
जीवन को दें मोड़ नया वे, पूरी करते सबकी आस।।
सात्विक भाव वहाँ उठते हैं, जो जग का करते कल्याण।
औरों का हित करते निज संग, महामनुज को हर पथ ज्ञान।।

सोच विमल हो, नित-नूतन उत्साह जगे, करता उपकार।
उत्पीड़न वह सहन करे न, नहीं सहे अन्याय जहान।।
विटप, साधु, सरिता, तरु नाई, सबका करता है उद्धार।
संजीवनी जगाता सबमें, जब मीठे कहता उद्गार।।

रचना-
पं० जुगल किशोर त्रिपाठी (साहित्यकार)
बम्हौरी, मऊरानीपुर, झाँसी (उ०प्र०)

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