
ख्वाब पलते थे मन में,
अलग थे वह जमाने।
रात को जब तकिये पर सर होता
और जिस्म बिस्तर पर होता,
मेरे सपने जागते,
खिड़की के बाहर आसमान तलाशते।
दिन भर की हाड़ तोड़ मेहनत
गृहस्थी की, भूल जाती मैं।
उन सपनों के साथ जैसे
मेरे भी पर लग जाते।
सोते-सोते भी, नींद में भी,
मैं उन सपनों के साथ होती।
कोई जैसे अंधेरे में मेरे कानों में
धीरे से फुसफुसाता,
” जो सपने पाले थे तुमने
वह पूरा करना है।
तुम हार जाने के लिए नहीं बनी हो।
तुम चट्टान हो।
जिम्मेदारियों से तुम्हें
टूटना और थकना नहीं है।
तुम्हें सपने पूरा करना है।
सुलेखा चटर्जी