
श्रीकृष्ण की लीलाओं में गोपियों के साथ उनका संबंध भारतीय भक्ति-संस्कृति का एक अद्वितीय और अमूल्य अध्याय है। यह केवल एक प्रेमकथा नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के मिलन की प्रतीकात्मक कथा है, जिसमें भाव, समर्पण और माधुर्य का अनुपम संगम दृष्टिगोचर होता है।
वृंदावन की रमणीय वसुंधरा, यमुना का कलकल प्रवाह, कुंज गलियों की मधुर छाया, पुष्पों की सुगंध और माखन-मटकी की चंचल घटनाएँ — इन सबके बीच कृष्ण और गोपियों का प्रेम-रस अनवरत प्रवाहित होता है।
जब श्रीकृष्ण अपनी मुरली के मधुर स्वर को बिखेरते, तो उसकी गूँज केवल वृंदावन की वादियों में ही नहीं, बल्कि गोपियों के हृदयों में भी गहराई तक उतर जाती।
श्रीमद्भागवतपुराण
(दशम स्कंध, अध्याय 29, श्लोक 4)
ताः श्रुत्वा व्रज-स्त्रियो मुरली-निनदं हृदि।
आश्रुत्य तन्मना भूत्वा जहुर् गृहाननिन्दिताः।।
“जब गोपियों ने मुरली की मधुर ध्वनि सुनी, तो उनके मन श्रीकृष्ण में एकाग्र हो गए और वे अपने घर-बार त्यागकर उनकी ओर दौड़ पड़ीं।”
यह आकर्षण मात्र लौकिक या शारीरिक नहीं था; यह आत्मा का उस अनंत, सर्वव्यापी चेतन सत्ता की ओर खिंचाव था, जो हर रूप, रस और आनंद का स्रोत है।
गोपियों का प्रेम न तो अधिकार-भाव से बंधा था, न प्रतिदान की अपेक्षा से। यह प्रेम पूर्ण समर्पण का था, जिसमें अपना सर्वस्व अर्पित कर देने का अद्वितीय आनंद था।
श्रीमद्भागवतपुराण
(दशम स्कंध, अध्याय 29, श्लोक 32)
नाहं तु सख्यः पवित्रां भक्तिं वा तव साधुके।
सर्वात्मना समर्पितं मयि प्रेयः सतां गतम्।।
“हे सखियो! तुम्हारा यह निष्काम प्रेम और पूर्ण समर्पण ही तुम्हारी पवित्रता है, क्योंकि तुमने अपने को पूर्णतः मुझे अर्पित कर दिया है।”
भागवत पुराण में स्वयं श्रीकृष्ण ने इसे भक्ति की पराकाष्ठा कहा है — वह अवस्था जहाँ भक्त और भगवान के बीच कोई भेद शेष नहीं रह जाता।
रासलीला, श्रीकृष्ण की लीलाओं का उत्कर्ष है। इसमें प्रत्येक गोपी को यह अनुभूति होती है कि कृष्ण केवल उसके साथ हैं, जबकि वास्तव में वे सर्वत्र और सर्वांग रूप से विद्यमान हैं। यह अद्वैत का क्षण है — जहाँ आत्मा को अपने परमप्रिय के साथ एकत्व का रसास्वादन होता है।
श्रीमद्भागवतपुराण
(दशम स्कंध, अध्याय 33, श्लोक 17)
अनया रासक्रीडायां भक्तानां परमोत्कर्षः।
श्रीभगवतः साक्षात् सुखानुभव उच्यते।।
“इस रासलीला में भक्तों के प्रेम का सर्वोच्च उत्कर्ष और भगवान के साक्षात् सुखानुभव का वर्णन है।”
यदि इस कथा को केवल लौकिक दृष्टि से देखा जाए, तो यह मात्र एक सुंदर प्रेमकथा लग सकती है; परंतु गूढ़ आध्यात्मिक दृष्टि से यह जीव और ब्रह्म के अनंत प्रेम का रूपक है। यहाँ गोपियाँ जीवात्माओं का प्रतीक हैं और श्रीकृष्ण परमात्मा के, जो सर्वप्रिय, सर्वव्यापक और आनंदस्वरूप हैं।
गोपियों का आकर्षण इन्द्रिय-सुख पर नहीं, बल्कि चेतना पर आधारित था। जब मुरली की तान बजती, तो वह केवल कानों में नहीं, आत्मा की गहराइयों में प्रवेश करती। यह वह दिव्य पुकार थी, जिसे परमात्मा निरंतर प्रत्येक जीव के हृदय में करते हैं; परंतु यह आह्वान तभी सुनाई देता है, जब मन का कोलाहल शांत हो जाता है।
छांदोग्य उपनिषद्
(अष्टम अध्याय, 3.4)
स एष नेति नेत्यात्मा…
“यह आत्मा सबके भीतर स्थित है, जिसे शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता, परन्तु अनुभूत किया जा सकता है।”
रासलीला में गोपियाँ अपने घर-परिवार, सामाजिक मर्यादाओं और सांसारिक दायित्वों को छोड़कर कृष्ण की ओर दौड़ पड़ती हैं। यह त्याग पलायन नहीं, बल्कि उस सर्वोच्च सत्य की ओर प्रस्थान है, जिसके सामने संसार का आकर्षण फीका पड़ जाता है।
रास में प्रत्येक गोपी को यह अनुभव होता है कि कृष्ण केवल उसके साथ हैं। यह अद्वैत का अनुभव है, जहाँ भक्त और भगवान के बीच कोई दूरी नहीं रहती।
ईशोपनिषद् (मंत्र 1)
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
“संसार में जो कुछ भी है, वह ईश्वर से आच्छादित है।”
भक्ति के नौ रूपों में माधुर्य भक्ति सबसे मधुर और गहन मानी गई है। इसमें भक्त परमात्मा को अपने जीवन का सर्वाधिक प्रिय मानकर उनसे प्रेम करता है। गोपियों का प्रेम इसी माधुर्य भक्ति का सर्वोच्च उदाहरण है — न कोई प्रतिदान की अपेक्षा, न स्वार्थ; केवल निष्कपट प्रेम और पूर्ण समर्पण।
कृष्ण-गोपियों की लीला यह सिखाती है कि परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग तर्क, बहस या कर्मकांड से अधिक, निर्मल प्रेम और निष्कपट समर्पण से सुगम है। जब जीव अपने अहंकार, वासनाओं और संचित कर्मों के आवरण को त्याग देता है, तब वह उस दिव्य रास में प्रवेश कर सकता है, जहाँ समय, स्थान और देह की सीमाएँ विलीन हो जाती हैं।
श्रीमद्भागवतपुराण
(दशम स्कंध, अध्याय 29, श्लोक 15)
न परेऽहं निरपेक्षो न मेऽप्रियः सुतप्रियः।
भक्तानां प्रियमेवाथो ह्यात्मतुल्यं प्रियं मम।।
“मैं न तो किसी का शत्रु हूँ, न किसी का प्रिय — परन्तु जो मुझे प्रेम करता है, वह मुझे आत्मा के समान प्रिय होता है।”
कृष्ण और गोपियों की कथा केवल सांस्कृतिक या धार्मिक घटना नहीं, बल्कि ब्रह्म और जीव के अनंत प्रेम का शाश्वत प्रतीक है। यह कथा युगों-युगों तक मानव हृदय को भक्ति, प्रेम और आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करती रहेगी। इसमें यह स्पष्ट संदेश निहित है कि परमात्मा से मिलन के लिए किसी विशेष स्थान, समय या विधि की आवश्यकता नहीं बल्कि केवल हृदय में निर्मल, निःस्वार्थ प्रेम होना चाहिए।
योगेश गहतोड़ी