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विवाह संस्कार

विवाह वर-वधूके मध्य एक पवित्र आध्यात्मिक सम्बन्ध है, जो अग्नि एवं देवताओं के साक्ष्यमें संपादित होता है ।

— स्थूल दृष्टिसे एक लौकिक उत्सव दिखाई देनेवाला यह संस्कार जीवन में सभी प्रकार की मर्यादाओं का स्थापना करने वाला है । संतानोंत्पत्ति द्वारा पितृ-ऋण से मुक्ति दिलाने वाला यह संस्कार संयमित ब्रह्मचर्य, सदाचार, अतिथि सत्कार तथा प्राणीमात्रकी सेवा करतेहुए स्वयंके उत्थान में सहज साधन के रूपमें प्रतिष्ठित है ।

विवाहका मूल उद्देश्य लौकिक आसक्तिका तिरोभावकर एक अलौकिक आसक्ति के आनन्द को प्रदान करना है । पुरुषार्थचतुष्टयकी सिद्धिमें गार्हस्थ्यधर्मकी विशेष महिमा है ।

विवाहका प्रयोजन है कि पुरुष एवं स्त्रीके आमर्यादित कामोंपभोगको नियंत्रित करना । कितने ही धार्मिक कृत्य बिना पत्नी के नहीं हो सकते । पत्नी पति की अर्धांगिनी है । पति और पत्नी दोनों विवाह के बाद ही पूर्णता को प्राप्त करते हैं ।

वेदमंत्रोंसे विवाह शरीर और मनपर विशिष्ट संस्कार उत्पन्न करता है और दोनों का परस्पर अनुराग अत्यन्त पवित्र और प्रगाढ़ होता जाता है । भारतीय सनातन संस्कृति में विवाह एक धार्मिक संस्कार है ।

धर्मविरुद्ध कामका सेवनकर प्रजाकी उत्पत्ति और गृहस्थ धर्मका पालन— इससे देव-ऋण, पितृ-ऋण तथा ऋषि-ऋण— तीनों की निवृत्ति हो जाती है ।

एक पत्नी व्रत तथा पातिव्रत— यह भारतीय विवाह’पद्धतिकी पवित्र देन है । विश्व के किसी भी समाजमें ऐसी विचारधारा नहीं है ।।

इसी कारण भारतीय विवाह प्रक्रिया एक अविच्छिन्न सम्बन्ध प्रदान करती है और
यह पवित्र बन्धन उसके पूर्वजन्मका तथा भावी जन्मका भी अभिन्न सम्बन्ध निश्चित करता है ।

भारतीय विवाह में सम्बन्ध-विच्छेद की कल्पना भी नहीं है । पत्नी पतिव्रतधर्मका निर्वाह करती है और पुरुष एकपत्नीव्रतके संकल्प पर स्थिर रहता है । दोनों के परस्परका अनुराग उत्तरोत्तर दृढ़ होता जाता है ।।

विवाह में कन्या की ‘भार्या’ संज्ञा होती है और पुरुषकी ‘पति’ संज्ञा होती है । अतः यह दोनों का संस्कार है । विवाह संस्कार से श्रौत स्मार्तानुष्ठान कर्मोंकी अधिकारसिद्धि और धर्माचरणकी योग्यता प्राप्त होती है ।।
भारतीय हिंदू-विवाह-संस्कारमें देवताओं और पितरों का पूजन करके उनका आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है । मातृकाओंकी पूजा एवं वन्दना की जाती है । विवाह के लिए उपस्थिति वरको विष्णुरूप मानकर उसे सर्वाधिक पूजनीय कहा गया है । अतएव पहले मधुपर्कसे उसकी पूजा की जाती है । पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, विस्टर, मधुपर्क तथा गोदान— यह उसके सत्कार के अंग है । इसके बाद संकल्पपूर्वक कन्यादान होता है यह महादान कहा गया है ।।

कन्यादाताको राजा वरुणकी उपाधि दी गई है । वह साक्षात् नारायण है और वधू साक्षात् लक्ष्मी ।।

भगवान् को लक्ष्मी देकर जिस पुन्य का अर्जन होता है, वही कन्यादाताको प्राप्त होता है । कन्या-प्रतिग्रह के पश्चात् व अग्निदेवकी प्रदक्षिणा करके वधूको स्वीकार करता है, फिर वैवाहिक अग्निकी स्थापना पूर्वक होम होता है ।

इस होममें वैदिक मंत्रोंद्वारा दांपत्य जीवन को सुखमय सफल तथा धर्म एवं यश से समुन्नत बनाने के लिए प्रार्थनाएँ की जाती हैं ।

वर-वधू के सांगुष्ठ दक्षिण हस्तको ग्रहण करके गार्हस्थ्यधर्मको निभानेकी प्रतिज्ञा तथा आजीवन साथ रहकर परस्पर सहयोग का उद्घोष करता है ।।

कन्या को पति के गोत्र की प्राप्ति ।
विवाह-संस्कार में कई कर्म होते हैं । प्रारंभिक कर्मों में वह पिताके गोत्रकी ही रहती है, किंतु जब पाणिग्रहण कर्म के अनन्तर सप्तपदी पूर्ण हो जाती है तब कन्या का अपने पिता का गोत्र नहीं रहता अपितु वह पति के गोत्र की हो जाती है । इसी बात को यमके वचनसे बताया गया है कि उदकदान अथवा वाग्दानकर्मसे वर कन्या का पति नहीं हो जाता, बल्कि पाणिग्रहण-कर्म से वह अपने गोत्रसे च्युत हो जाती है और सप्तपदीके सात पदोंके अनुक्रम के अनन्तर उसे पतिके गोत्रकी प्राप्ति होती हो जाती है ।।

नादकेन ना वाचा वा कन्याया: पतिरुच्यते ।
पाणिग्रहणसंस्कारात्पतित्वं सप्तमे पदे ।।’
पतिगोत्रप्राप्तिरपी सप्तमपदातिक्रमे भवति ।’
स्वगोत्राद् भ्रश्यते नारी विवाहात्सप्तमे पदे ।।

मनु जी ने मनुस्मृतिमें पहले विस्तारपूर्वक स्त्री-पुरुषों का तथा गृहस्थाश्रमधर्मका निरूपण करनेके अनन्तर दो श्लोकोंमें संक्षेपमें गृहस्थधर्ममें स्त्री-पुरुषका क्या कर्तव्य है, इसे बताते हुए कहा है कि पति-पत्नी दोनों का जीवन पर्यंत धर्म, अर्थ तथा काम के विषय में व्यभिचार न हो, दोनों साथ-साथ मिलकर अपनी अपनी मर्यादामें स्थित रहकर ‘शास्त्रबोधित’ कर्मों का अनुष्ठान करें— यही संक्षेपमें स्त्री पुरुषका कर्म जानना चाहिए । अतः विवाह किए हुए स्त्री-पुरुष को ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि वे धर्म-अर्थ तथा कामविषयक कार्योंमें परस्पर कभी पृथक ना हों ।।
अन्योन्यस्याव्यभिचारो भवेदामरणान्तिकः ।
एष धर्मः समासेन ज्ञेयः स्त्रीपुंसयो: परः ।।
तथा नित्यं यतेयातां स्त्रीपुंसौ तु कृतक्रियौ ।
यथा नाभिचरेतां तौ विमुक्तावितरेतरम् ।।
मनुस्मृति ९।१०१-१०२
सद्’गृहस्थकी शिक्षामें बताया गया है कि वह शास्त्र में बताई गई विधि-निषेधरूप व्यवस्थाका सम्यक् पालन करे । अपने लिए विहित दैनन्दिन-संध्यावंदन आदि नित्य कर्मों का समुचित रूपसे पालन करे और सत्पुरुषोंके आचरणका पालन करे । पंचमहायज्ञों द्वारा देवता, ऋषि, पितर, अतिथि तथा समस्त प्राणियों को सन्तृप्त करे ।
न्यायोपार्जित द्रव्यद्वारा अर्थ का अर्जनकर उसका यथायोग्य उचित जगह पर खर्च करे । दीन-दु:खियों की सहायता करे । भृत्यवर्ग एवं पोष्यवर्ग का पालन करे, इंद्रियों की चपलता का परित्याग करके परम सुचिता को ग्रहण करे ।

शिष्टाचार का पालन करे । स्वच्छ एवं पवित्र परिधान धारण करे । शौच, संतोष अहिंसा आदि यम-नियमों का पालन करे । तीर्थों पर आस्था रखे, अधर्मसे सदा बचत रहे, निषिद्ध आचरण का सर्वथा परित्याग करे, सबके साथ मैत्रीका व्यवहार रखे ।
अन्त्येष्टि-पर्यन्त सभी संस्कारोंको करे, शास्त्र और देवता में आस्तिक बुद्धि रखे, माता-पिता, गुरु आदि श्रेष्ठ जनोंमें देवबुद्धि रखे ।
प्राणीमात्रकी सेवा करे और सबके प्रति सद्भाव रखे । अपने लिए जो प्रतिकूल हो वैसा दूसरे के लिए भी आचरण न करे तथा पति-पत्नी दोनों अपनी मर्यादा तथा स्वधर्म में सदा प्रतिष्ठित रहें ।।

साभार— गीता प्रेस गोरखपुर
लेखन व प्रेषण—
पं. बलराम शरण शुक्ल
नवोदय नगर हरिद्वार

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