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सफ़र


मंज़िल से रास्ता बिछड़ने लगा,
अपना ही घर अब अजनबी-सा लगा।
अपने भी गैर-से लगने लगे,
वक़्त बदला—
तो प्रेम का रंग भी बदलने लगा।

पैर लम्बे हुए,
चादर छोटी हुई,
मैं बेख़बर समझता रहा—
पर चादर सचमुच कम पड़ गई।

अब नींद आती नहीं,
जब से मर चुका हूं।
रात भाती नहीं—
सच कह रहा हूं।

चाँद का सवेरा देखे,
सदियाँ बीत गईं।
सूरज की तपन अब
मुझे जला नहीं पाती।

अब मैं कमाता नहीं,
क्योंकि कुछ भी खाता नहीं।
भटकता हूं—
ऐसा भ्रम है मुझको,
मगर चलता मैं
कभी नहीं।

सोचता हूं, इस बार चुनाव लड़ लूं,
नामांकन-पत्र मैं भी भर दूं।
जब चोर-चूहाड़े खड़े हैं कतार में,
तो भूत क्यों रहे बेकार में?

जीत गया तो ठीक,
वरना हारकर भी डराऊंगा सबको।
वैसे भी—
क्या बदला अब तक?
आगे भी क्या कुछ बदलेगा?

सोचता हूं, एक बार आत्मा बनकर
मरे हुए आदमी को
जगाता रहूं।
आर एस लॉस्टम

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