
विधा- गद्य
श्रीकृष्ण का सम्बन्ध सदा ही आजादी से रहा है। यह उनके अवतरण से लेकर निजलोक गमन और उसके पश्चात भी सदा उनके साथ जुड़ी रही। भारत समेत समस्त विश्व के जिन-जिन देशों में महापुरुषों और सत्पुरुषों और पैगम्बर, मसीहा ने जन्म लिया है, वे जन्म से लेकर जीवन-पर्यन्त सदा आजादी की खुली हवा में रहे और इसी की उन्होंने सभी को सदा शिक्षा दी है। प्रेम बिना स्वतन्त्रता के फलित नहीं होता, इसके लिए आजादी बहुत जरुरी है। स्वतन्त्रता के वृक्ष पर ही प्रेम रूपी बेल अमर रहकर पुष्पित और फलित होकर शीतल सुगन्ध फैलाती है।
श्रीकृष्ण के जीवन में दो बाते विशेष रूप से देखने को मिलीं। ये हैं- स्वतन्त्रता और प्रेम। स्वतन्त्रता में पला-बड़ा प्रेम निर्भयता लाता है और वही सभी को धर्म और अध्यात्म के पथ पर आरुढ़ करके अहिंसा की शिक्षा देता है। यही प्रेम और निर्भयता हृदय को पवित्र और निर्मल करता है। यह जीवन पथ पर उन्हें अनेक दिशाओं में अग्रसर करता है और उन्हें लक्ष्य की ओर उन्मुख करता है।
श्रीकृष्ण जन्म पर अगर विचार करें तो हमें दो-तीन विषयों पर विचार करना होगा जो उनके जन्म के साथ ही जुड़ी हुई हैं और जो प्रत्येक मनुष्य के जीवन से भी सम्बन्ध रखती हैं। उनमें पहली बात है कि श्रीकृष्ण का जन्म अँधेरी रात में हुआ है। ये हमें थोड़ा हटकर दिखाई देता है। संसार में कौन ऐसा व्यक्ति है जिसका जन्म अँधेरे में नहीं होता है। लेकिन संसारिक व्यक्ति उस अँधेरे से दूर रहने या उसे जीवन से हटाने या उसकी निर्भयता में जीने की कोशिश ही नहीं करते, कुछ विरले महापुरुष, सत्पुरुष और योगी ही इस ओर प्रयाण करते हैं और जीवन को बदल लेते हैं और ओरों का जीवन भी बदल देते हैं। वह जीवन-भर एक प्रकाश की किरण की भाँति रहकर सभीके जीवन से अँधकार को हटाकर उन्हें विकारों से मुक्त करने का प्रयास करते हैं और गाँव-नगर जाकर सभी को सकारात्मक उपदेश देकर बहुतों का कल्याण करते हैं। गर्भगृह में हम सभी अँधेरे में ही रहते हैं और जन्म के समय अँधेरा कर दिया जाता है ताकि जन्म लेने वाली आत्मा जिस माहौल से आयी है, उसे लगे कि वह उसी माहौल में है। जब बच्चे का जन्म होता है तो उसकी दशा जमीन से उखाड़े हुए वृक्ष की तरह होती है, जिसके समूचे प्राण छटपटाते हैं, जमीन उसका सेतु है, सेतु से जबरन जब उसे अलग किया जाता है तो उसका रोयां-रोयां आन्दोलित होता है। जैसे उसे अस्तित्व की धारा से अलग कर दिया गया हो। यही दशा उस बच्चे की होती है, जो जन्म लेता है। माँ ही उसका सेतु था, उसी से उसे प्राण ऊर्जा, भोजन और पानी तथा प्राणवायु मिलती थी। माँ के गर्भ में वह परम आनन्दित होता है। एकसा वातावरण, निकटस्थ समुद्र की तरह। एक-सा मौसम, एकसा वातावरण साल-भर। जन्म के तुरन्त बाद ये सब छिन्न-भिन्न हो जाता है और बच्चा घबड़ा उठता है ,उसका दम घुटने लगता है, इसलिए वह रोने लगता है। वह समझ नहीं पाता कि यह क्या हो गया अचानक?
दूसरी बात श्रीकृष्ण का जन्म कारागृह में होता है। किसका जन्म कारावास में नहीं होता है। माँ के गर्भ से बाहर इस शरीर में आना सबसे बड़ा कारागृह है आत्मा के लिए। लेकिन श्रीकृष्ण जन्म के बाद तुरन्त कारागृह से मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि वह जाग्रत आत्मा हैं, इसीलिए वह ब्रह्म रुप हैं, ईर्ष्या-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि समस्त विकारों से रहित ईश्वर कलताते हैं। मुक्त पुरुष यदि सक्रिय हो तो ईश्वर बनकर अवतार लेता है। मुक्त पुरुष निष्क्रिय रहकर यानि सजगता न हो, तो सिद्ध की श्रेणी में आता है, वह सीधी यात्रा पर निकल जाता है। यह एक अलग विषय है, जिस पर फिर कभी चर्चा होगी। ईश्वरीय पुरुष जो भी करते, वह अकर्ता बनकर करते हैं, इसलिए जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त रहते हैं। कर्म-जाल उन्हें बाँध नहीं पाते हैं। जो समस्त कर्मों के प्रभाव और जालों से मुक्त अकर्ता हो वही सबको कर्म-बन्धन से मुक्त कर सकता है क्योंकि उसे मार्ग पता है, वह उससे होकर आया है। इसलिए शरीर का अपना न मानना, अकर्ता की भाँति अनासक्त भाव से रहकर कर्म करना यही श्रेष्ठ और दिव्य पुरुषों के लक्षण हैं। वही तारणहार हो सकते हैं, अन्य नहीं।
तीसरी बात श्रीकृष्ण के जन्म के साथ ही मृत्यु उनका जीवन-भर पीछा करती रहती है शत्रुओं के रुप में। वह जीवन-भर कहीं सुख से नहीं रह पाते हमारी दृष्टि में। लेकिन जो वर्तमान में जीता है, अतीत से दूर और अछूता रहता है, भविष्य की चिन्ता नहीं करता है, वही जीवन-मुक्त प्राणी ईश्वर की कोटि में आता है। इसलिए वह शत्रुओं से सदा जीतते रहते हैं, क्योंकि वह अतीत और भविष्य से अछूते और अचिन्तत होकर पल-पल में जीते हैं, चाहे वह युद्ध का मैंदान हो या विवाह समारोह या राज-काज या प्रेमी-प्रेमियों के मध्य रहना या परिजनों के बीच सहना। सभी जगह वह एकसा जीवन व्यतीत करते हैं। इसलिए वह जीवन को आनन्दपूर्ण जी पाते हैं, किन्तु हम लोग ऐसा नहीं करते हैं।
आज मैंने श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़ी हुई दो-तीन बातों पर चर्चा की, जिनको यदि पाठकगण समझें और उस पर विचार करें तो निश्चित ही हम भी प्रेमपूर्ण होकर वर्तमान में जीकर, जीवन-मुक्त, आनन्दमय पल व्यतीत कर सकते हैं।
आलेख-
पं० जुगल किशोर त्रिपाठी (साहित्यकार)
बम्हौरी, मऊरानीपुर, झाँसी (उ०प्र०)