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पतंजलि योग सूत्र

भूमिका

योग का अर्थ है ‘मिलना’, ‘जुड़ना’ संयुक्तहोना आदि ।।

प्रिय बंधुओ !!
मंगल कामना ।।
आप मन लगाकर महर्षि पतंजलिजीका प्रतिदिन ये छोटे-छोटे लेख पढ़ते रहें ।।
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🎛️भू🎛️मि 🎛️का🎛️

योग का अर्थ है ‘मिलना’, ‘जुड़ना’, ‘संयुक्तहोना’ आदि ।

जिस विधि से साधक अपने प्रकृतिजन्य विकारोंको त्यागकर अपनी आत्मा के साथ संयुक्त होता है वही ‘योग’ है । यह आत्माही उसका निज स्वरूप है तथा यही उसका स्वभाव है अन्य सभी स्वरूप प्रकृतिजन्य हैं जो अज्ञानवश अपने ज्ञात होते हैं । इन मुखौंटों को उतार कर अपने वास्तविक स्वरूप को उपलब्ध हो जाना ही योग है । यही उसकी ‘कैवल्यावस्था’ तथा ‘मोक्ष’ है ।
योग की अनेक विधियां हैं । कोई किसी भी का अवलंबन करके करे अन्तिम परिणाम वही होगा ।
विधियों की भिन्नता के आधार पर योग के भी अनेक नाम हो गए हैं जैसे— कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, लययोग, राजयोग, हठयोग, नादयोग, बिंदुयोग, ध्यानयोग, क्रियायोग आदि ।
किंतु सबका एक ही ध्येय है उस पुरुष आत्मा के साथ अभेद सम्बन्ध स्थापित करना । महर्षि पतंजलि का यह योग दर्शन इन सब में श्रेष्ठ एवं ज्ञानोपलब्धि का विधिवत् मार्ग बताता है जो शरीर इंद्रियों तथा मन को पूर्ण अनुशासित करके चित्त की वृत्तियों का निरोध करता है । *पतंजलिजी चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही योग कहते हैं क्योंकि इसके पूर्ण निरोध से आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाती है इस निरोध के लिए वे अष्टाँग योग- *{यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह योग के आठ अंग हैं}* -का मार्ग बताते हैं जो निरापद है । इसलिए इसे अनुशासन कहा जाता है जो परम्परागत अनादि है ।
इसके मार्ग पर चलने से किसी प्रकार का भय नहीं है तथा कोई अनिष्ट भी नहीं होता ना मार्ग में कहीं अवरोध ही आता है । जहाँ-जहाँ अवरोध आते हैं उनका इस ग्रंथ में स्थान-स्थान पर वर्णन कर दिया है जिससे साधक इनसे बचता हुआ अपने गंतव्य तक पहुंच सकता है । योग की मान्यता अनुसार प्रकृति तथा पुरुष {चेतन आत्मा} दो भिन्न तत्व हैं जो अनादि हैं । इन दोनों के संयोग से ही इस समस्त जड़ चेतन मय सृष्टि का निर्माण हुआ है । प्रकृति जड़ है जो सत्व, रज तथा तम इन तीन गुणों से युक्त है । इसके साथ जब चेतना पुरुष का संयोग होता है तब उसमें हलचल होती है तथा सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया आरंभ होती है । यह प्रकृति ‘दृश्य’ है तथा ‘पुरुष दृष्टा’ है । इस सृष्टि में सर्वत्र प्रकृति ही दिखाई देती है, पुरुष कहीं दिखाई नहीं देता किंतु प्रकृति का यह संपूर्ण कार्य उस पुरुष तत्व की प्रधानता से ही हो रहा है ।
ये दोनों इस प्रकार संयुक्त हो गए हैं कि इन्हें अलग-अलग पहचानना कठिन है । इसका कारण अविद्या है । ‘पुरुष’ सर्वज्ञ है तथा प्रकृति के हर कण में व्याप्त होने से वह सर्व-व्यापी है । जीव भी इन दोनों के ही संयोग का परिणाम है । उस ‘पुरुष’ को शरीर में ‘आत्मा’ तथा श्रृष्टि में ‘विश्वात्मा’ कहा जाता है । जिसे योग दर्शन में ‘पुरुष विशेष’ कहा है । इसलिए यह {ईश्वरयुक्त} दर्शन है ।
क्रमश: ……..
स्रोत~ पतंजलि योग दर्शन
लेखन व प्रेषण—
पं. बलराम शरण शुक्ल
हरिद्वार

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