
सूत्र — १
अथ योगानुशासनम् ।
अथ= अब; योगानुशासनम्= परंपरागत योगविषयक शास्त्र {आरम्भ करते हैं} ।
अनुवाद– अब परम्परागत योग विषयक शास्त्र आरम्भ करते हैं ।
व्याख्या– योग की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है । यह संपूर्ण सृष्टि ‘प्रकृति’ तथा पुरुष के संयोग की ही अभिव्यक्ति है । इसलिए इसके हर कण में वह पुरुष {चेतन} तत्व व्याप्त है । प्रकृति जड़ है जो पुरुष के संयोग से ही अपनी अभिव्यक्ति की क्षमता प्राप्त करती है । जीव का विकास भी इन दोनों के संयुक्त का ही परिणाम है । ये दोनों तत्व इस प्रकार संयुक्त हैं कि इनकी भिन्नता का ज्ञान सामान्य जन को नहीं होता । प्रकृति दृश्य है तथा पुरुष दृष्टा जीव में जो आत्म तत्व है वही पुरुष है तथा प्रकृति को उसने अपने कार्य संपादन के लिए ग्रहण किया है । इसलिए इस जीव का वास्तविक स्वरूप उसकी यह चैतन्य स्वरूप आत्मा ही है जिसने प्रकृति को अपना माध्यम बनाया है ।
जीव में मन बुद्धि, चित्त, अहंकार, शरीर, इंद्रियां आदि इन दोनों के संयुक्त रूप का प्रतिफल है । ‘चित्त’ इन दोनों के संयोग का प्रथम रूप है जिसमें एक और सांसारिक भोग की वासनाएं निहित है तथा दूसरी ओर यह पुरुष की ओर आकर्षित होकर जीव के लिए मुक्ति का मार्ग दिखाता है । यही उसकी ‘अविद्या’ तथा ‘विद्या’ शक्ति है ।
अविद्या ही जीव को संसार के भोगों की ओर आकर्षित करती है किंतु इसका विनाश होने पर मनुष्य में विद्या जनित संस्कार दृढ़ होकर उसे मुक्ति दिलाते हैं ।
इस स्थिति में वह चैतन्य आत्मा प्रकृति के साथ अपने संयोग को छोड़कर पुनः अपने रूप में स्थित हो जाती है । यही जीव की कैवल्य अथवा मोक्ष की अवस्था है ।
यह योग दर्शन उन समस्त विधियों का प्रतिपादन करता है जिससे साधक अपने प्रकृति जन्य समस्त विकारों को दूर कर उस आत्मा के साथ संयुक्त होता है । इस आत्म स्वरूप की उपलब्धि के लिए वह शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार आदि का पूर्ण परिशोधन कर उन्हें इस योग्य बना देता है कि वह वास्तविक स्वरूप आत्मा को पहचान सके तथा उसी में स्थित हो जाए । इन सबके लिए एक ही विधि है । “चित्त की वृत्तियों का निरोध” जिसके लिए आठ साधन हैं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि । इन साधनों के विधिवत् अनुष्ठान से ही मनुष्य उस परम पद को प्राप्त करता है ।
महर्षि पतंजलि ऐसे ही समस्त मानवोपयोगी ग्रंथ योग दर्शन का आरम्भ करते हुए प्रथम इस सूत्र में कहते हैं कि अब इस परम्परागत योग शास्त्र का आरम्भ करते हैं । यह शास्त्र एक अनुशासन है जिससे चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है एवं मनुष्य अपने आत्म स्वरूप में स्थित हो जाता है ।
स्रोत— पतंजलि योग दर्शन
लेखन व प्रेषण—
पं. बलराम शरण शुक्ल
हरिद्वार